पाँचवाँ अध्याय ६०३ ? उपदेश हो रहा है और तर्क-दलीलके साथ बारबार कहा जा रहा है कि जानो, समझो, सोचो, विचारो, 'बोद्धव्यम्, विद्धि', तब यह क्यो हुआ तब यह आज्ञा कैसी कि लडो ? तब तो यह उपदेशका नाटक ही माना जायगा न? कमसे कम इस प्रकारका खयाल उसके दिमागमे बिजलीकी तरह एकाएक दौड जाना स्वाभाविक था। फलत कृष्णसे उसका चटपट प्रश्न करना जरूरी हो गया कि एक ही साँसमे दोनो बाते क्यो कहते है ? या तो कर्म ही कहिये और बात खत्म कीजिये; या सन्यासकी ही बात कहिये और सोचने दीजिये कि पाया मै उसका अभी अधिकारी हो पाया हूँ या नहीं। यह झमेला ठीक नही। साफसाफ बोलिये। इसीलिये- अर्जुन उवाच संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥१॥ अर्जुनने पूछा--हे कृष्ण, आप (पहिले तो) कर्मोंके सन्यासकी बात कहते है और (फौरन ही) उन्हे करनेको कहते है । (यह क्या ?) इन दोनोमे जो अच्छा हो वही मुझे पक्का-पक्की बताइये ।१। यहाँ 'कर्मणा' इस षष्ठी विभक्तिके बाद सन्यास' और 'योग' लिखनेसे स्पष्ट हो जाता है कि सन्यास कहते है कर्मोंके त्यागको और योग कहते है उनके करनेको। इसीलिये हमने 'कर्मेन्द्रिय कर्मयोग' (३७) आदिमे 'करना' यही अर्थ किया है। यही वहाँ अँचता भी है। ऐसी दशामे यहाँ, चौथे अध्यायके अन्तमे या ऐसी ही और जगहोमें भी योगका दूसरे अध्यायवाला कर्मयोग अर्थ जो लोग कर डालते है, फिर भी अपने अर्थमे खीचातानी देख पाते नही, उनसे हमे इतना ही अर्ज करना है कि खीचतान किसीकी मौरूसी नही है। इसलिये वे खुद अपने बारेमे ही सोचनेका कष्ट करे।
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५९४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।