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चौथा अध्याय ६०१ दीपकने उसीको मिटा दिया । मगर ज्ञानको पक्का और दृढ होनेके लिये समाधिकी जरूरत है। उसके बिना वह मजबूत होई नही सकता। किन्तु कर्मोको करते रहने पर समाधिके लिये फुर्सत कहाँ ? इसीलिये कर्मोंका सन्यास भी बता दिया है। किन्तु यह सन्यास मिथ्याचार और दभ न हो, नकली न हो, इसीलिये कह दिया कि कर्मोके करते-करते अन्त करणकी शुद्धि हो जाने पर जब सन्यासकी योग्यता हो जाय और उसका अवसर आ जाय तभी सन्यास करना ठीक है। यहाँ और आगे योगका अर्थ है कर्म। तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४२॥ इसलिये हे भारत, अज्ञानसे पैदा होनेवाले (और) हृदयमे ही घर बनाके जमनेवाले इस सशय (रूपी प्रचड शत्रु)को आत्माके ज्ञानरूपी तलवारसे कत्ल करके उठ खडे हो (और युद्धात्मक) कर्म करो ।४२॥ यहाँ ज्ञानको तलवार कहनेका आशय यही है कि जैसे तीखी तलवार- से ही जबर्दस्त शत्रुको मार सकते है, कमजोर या भोथी तलवारसे कोशिश करने पर उलटे खतरा रहता है। वैसे ही ज्ञान खूब दृढ और शक-शुभेसे बिल्कुल ही अछूता जब तक न हो जाय इस अज्ञानका और तन्मूलक सशय- का भी खात्मा होता ही नहीं। इसीलिये दीर्घकाल तक यत्न करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना निहायत जरूरी है। उपनिषदोकी आख्यायिकाये इस बातके प्रबल प्रमाण है कि कच्चे ज्ञानवालेका सशय उसे कैसे परीशान करता है। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णा- र्जुनसम्वादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥ श्रीमद्भगवद्गीताके रूपमे उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योग- शास्त्रमे जो श्री कृष्ण और अर्जुनका सम्वाद है उसका ज्ञान-कर्म-सन्यास- योग नामक चौथा अध्याय यही है।