चौथा अध्याय ५६६ वाली-चीज दूसरी हई नहीं। कर्मोके फलस्वरूप जिसका अन्त करण- मन--शुद्ध हो गया है वही इसे समय पाके अपनेमे ही हासिल कर लेता है । (वाहर जाने या ढूंढनेकी जरूरत नही होती) ।३८। जो समझते है कि मनकी शुद्धि और स्थिरताके बाद फौरन ही ज्ञान हो जायगा, उन्हीके लिये यहाँ 'कालेन'-समय पाके-कहा गया है। इसे प्राप्त करनेमे समय लगता है, देर होती है । क्योकि भावना, निदि- ध्यासन और समाधिकी जरूरत जो होती है और उसमे काफी समय लगता है। इसी वातका स्पप्टीकरण अगले दो श्लोक करते है । 'आत्मनि'--यात्मा- मे-कहनेका अभिप्राय यही है कि आत्माका ही तो ज्ञान होना है और उसीमे तो जगत्को देखना है, भीतर ही ढूंढना है। तीर्थमे या कही और तो जाना-बाना है नहीं। श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥३६॥ जो श्रद्धावाला है, जिसने अपनी इन्द्रियोको बखूबी कावूमे कर लिया है और जो इस वातमे दिन-रात मुस्तैद है, उसीको ज्ञान होता है । ज्ञान हो जाने पर अखड शातिका अनुभव फौरन ही होने लगता है ।३९। अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४०॥ (विपरीत इसके) जो कुछ जानता ही नहीं, जिसे श्रद्धा भी नही है और जिमके मनमे सगयने घर कर लिया है वह चौपट ही हो जाता है । (क्योकि) हर वातमे गक करनेवालेका न तो यही काम चल सकता है पोर न परलोकमे ही। उसे चैन तो कभी मिलता ही नही ।४०॥ यहाँ अज्ञ कहनेका अभिप्राय यही है कि आत्मज्ञानके उपायोके वारेमें भी कुछ न जानता हो । इसीलिये न तो उसका इन्द्रियो पर काबू ही हो प्रोर न मन्तैदी ही। पहले श्लोककी यही बाते ज्ञानके लिये मूल
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