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५६८ गीता-हृदय नही। दोनोकी मौलिक विभिन्नता है । मगर श्लोकमें जो अनुभव बताया गया है वह तो ठीक इसी तरहका है, इसी प्रकारका होना चाहिये कि ये सभी पदार्थ आत्मामें ही है, आत्मासे अलग नहीं है। यहाँ दिक्कत यह पडती है कि ससारमे असख्य आत्माये है और उनकी चैतन्य शक्तिकी समानताको देखते हुए यदि किसी प्रकार कहा जा सके भी कि ये सभी आत्माये मुझमें ही है, मुझसे जुदी नही है; या जब आत्मा- परमात्माकी एकता है तो आत्मा-प्रात्माकी एकता भी अर्थ सिद्ध है; इसलिये एकताके खयालसे अगर ठीक ही कह सके कि सभी आत्मायें मुझसे जुदी नही है । तो भी जो अचेतन भौतिक पदार्थ है उन्हें कैसे कहें कि ये मेरी आत्मासे-मुझसे-~-अलग नही है ? किन्तु "भूतानि अशेषेण" कहनेसे तो वे भी आते ही है । भूत कहनेसे ही आत्माके सिवाय शरीरादि सभी आ जाते है । जव अशेषेण कह दिया तब तो कोई छूटी नही सकता। इसलिये उनकी भी तन्मयताका ज्ञान आत्माको, हमें होना ही चाहिये । हाँ, एक ही बात हो सकती है। जैसे सपनेमें देखे पदार्थोके बारेमें जगने पर अनुभव होता है कि मुझसे अलग या मेरे अलावे और कोई चीज़ जो दीखती थी, कहाँ थी ? वहां सपनेमे भी सब कुछ मै ही था, मेरे अलावे और तो कुछ था नही । या जैसे रस्सीमे भ्रमसे माने गये सांप के वारेमें उजालेमे यही अनुभव होता है कि यह तो रस्सी ही है, यही साँप मालूम पडती थी, इसके अलावे कोई सांपवाँप तो है नहीं। ठीक यही वात ससारके बारेमे भी हो कि मुझसे अलग कहाँ कोई चीज है ? मै ही तो सर्वत्र हूँ, सबमे हूँ। मेरे अलावे तो और कुछ हई नहीं। तभी श्लोकका अर्थ ठीक-ठीक जंचेगा। तभी वास्तविक अद्वैतवाद भी सिद्ध होगा। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८॥ क्योकि (वस्तुत ) इस दुनिया ज्ञानसे बढके पवित्र शुद्ध करने-