गीता-हृदय सूचक वाक्य "इतिश्री" आदि है उसमें इस अध्यायको, इसमें प्रतिपादित मुख्य विषयके कारण ही, "ज्ञान-कर्म-सन्यास-योग" नाम दिया गया है। कर्म-सन्यासकी बात भी इस अध्यायमे आई है यह तो पहले ही कहा है मगर आगे “योगसन्यस्तकर्माण" (४।४१) में साफ ही कर्म-सन्यास आया है न कि अकर्म शब्दके अर्थके रूपमें अप्रत्यक्ष रूपसे आया है। अध्यायके अन्तमें यह सन्यास और इसीके बाद ४२वेंमें “योगमातिष्ठ"के द्वारा कर्मका करना कहके अध्यायको खत्म किया है। इसीलिये आगे अर्जुनको शका करनेका मौका फौरन ही मिल गया है। यह भी कितना अच्छा है कि पहले ज्ञान और पीछे कर्म सन्यास आया है। फलत "ज्ञान-कर्म-सन्यास- योग" नाम देना उचित हो गया । हाँ, तो उस ज्ञानको जरा देखा जाय । यह तो पहले ही कह चुके है कि इस श्लोकमें अद्वैत ज्ञानका ही प्रतिपादन है। मगर अद्वतके मानी केवल यही नही है कि जीव और ईश्वर या आत्मा और परमात्माकी एकता है, जैसा कि कह चुके है। यह एकता तो हई। इसके विना तो यह सभव होई नही सकता कि सभी भूतो या सत्ताधारी पदार्थोंको- सारे ससारको-आत्मामे और परमात्मामे-दोनोमें ही-देखा जा सके। अगर दोनो दो होते तो यह कैसे सभव था कि जो चीजे आत्मामें दीखती वही एक एक करके परमात्मामें भी नजर आती ? दो पृथक् पदार्थोंमे ऐसा होना, ऐसा देखा जाना असभव है। असलमें दोनो एक ही है। मगर मोह, भ्रम या अज्ञानकी भूलभुलैयां के चलते अलग-अलग- भिन्न-भिन्न-माने जाते है । किन्तु आत्माका साक्षात्कार होते ही यह ज्ञानी मस्त होके भीतर ही भीतर अपनी पुरानी नादानी पर और दुनियाँकी भी मूर्खता पर हँसता है कि देखिये न, हम इन्हे दो मानते थे। हालांकि दोनो एकही है | उफ, ऐसी अन्धेर कि एकको दो कर दिया । सो भी ऐसे दो, कि एक दूसरेमें जमीन आसमानका फर्क | क्या गजब है । इसीके माय
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