यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५५८ गीता-हृदय तीन बार द्वितीय अध्यायमे आया है। मगर पहले दो बार ज्ञानके सम्बन्धमें और बादमे एक बार कर्मके सम्बन्धमे । यहाँ भी कर्मके ही सम्बन्धमें है। इसमें और "सिद्धयसिद्धयो समो भूत्वा में पूर्ण समानता है। ज्ञान और कर्मके समत्वका भेद पहले ही बताया जा चुका है । तेईसवें श्लोकमें यज्ञार्थकर्म यज्ञायकर्म-की बात आ जानेसे २४वेसे लेकर ३१वेतक ८ श्लोकोमें यज्ञोकी ही बात आ गई है। इनमें भी ३०वेंके पूर्वार्द्धतक साढे छे श्लोकोमें कुल पन्द्रह प्रकारके यज्ञोका वर्णन है। शेष डेढमें उनकी महत्ता बताई गई है। यज्ञ सब पापो और बुराइयो को धो देते है, और यज्ञके बाद ही बचे-बचाये पदार्थोको अमृत समझ उन्हें भोगनेवालोको ब्रह्मकी प्राप्ति भी होती है, यही दो बातें कही गई है । मगर ३१वेंके उत्तरार्द्ध में जो यह कहा है कि यज्ञ न करनेवालेका तो काम यही नही चल सकता, परलोककी बात तो दूर रहे, वह यह सूचित करता है कि गीताका यज्ञ बहुत ही व्यापक है। फलत इसके भीतर समाजोपयोगी कार्य भी एक-एक करके आ जाते है । असल में जिन पन्द्रह यज्ञोको गिनाया है उनके भीतर दुनियाके सभी काम आ जाते है । खूबी तो यह है कि पन्द्रह तरहके यज्ञोको गिनाके अन्तमें यह कह दिया है कि इस तरहके बहुतेरे यज्ञ वेदोमे आते है-“एव बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे"। इसीसे स्पष्ट हो जाता है कि नमूनेके रूपमें या दल और किस्मके रूपमें ही ये पन्द्रह गिनाये गये है। दरअसल हरेकके पेटमें सैकडो- हजारो तरहके यज्ञ आ सकते है । यज्ञोंके बारेमें थोडा और भी विचारें तो अच्छा हो । तीसरे अध्यायमें भी "यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र" (३९) में यज्ञार्थ कर्मकी बात आई है । वही यहाँ भी है । गौरसे देखनेसे यह भी पता चलता है कि दोनो श्लोकोमें एक ही बात है। इसीलिये सग या आसक्तिका त्याग वगैरह भी दोनोमें ही आये है । अगर वहाँ ‘कर्मबन्धन से छूटनेकी बात है तो यहाँ कर्मोक