५८६ गीता-हृदय और सदा रहनेवाली मस्ती आई है । २२वेमे कर्मके पूरे होने-न रोन वेपर्वाही-समत्व-के साथ शरीरयात्राके लिये बेफिकी, जोई मिले उसी सतोष, हर्प-विपाद आदिके लेशका भी न होना और दूसरोको सपना देखके जलनका न होना यही बाते कही गई है। २३वमें हर तरह असगता, सभी बन्धनोसे छुटकारा और वुद्धिके तत्त्वज्ञानमे डूब जाने अलावे यह भावना होना कि ये कर्म यज्ञार्थ हो रहे है, यही बात कही ग. है। इन सबोंके मिलानेसे ऐसा हो जाता है कि आत्मसाक्षात्कारम हो कर्मोसे छुटकारा होता है-वे जल जाते है । मगर इसकी-माक्षात्कार की-पहचान क्या है यही देखना है और यही असल चीज है । इस दृष्टिम पता लगता है कि पहली चीज है वुद्धिका आत्माकी ही अोर टंग जाना मौन मनका उमीमे रम जाना। मगर इसका पता लगता है तव जब कामना सकल्प, कर्म तथा फलकी आसक्ति, ये सभी छूट जाते है और होगा तृति बनी रहती है। लेकिन ये सभी भीतरी बातें है। इसीलिये इनका पना लगे ? यही कारण है कि यह कह दिया है कि न तो किसी आदमी ८ देवता वगैरह की पर्वा हो, न साने-पीने प्रादिके लिये हाय-हाय, न गिनी भी वैर-विरोध, न हर्प-द्वेप और राग और न किसीसे चिपकना । इसी साथ यह भी रहे कि काम पूरा हुआ तो क्या, न पूरा हुआ तो क्या' फनत निश्चिन्त रहे । ये बाहरी पहचान है। अन्तमे इनके साथ यह भी मार दिया कि यनके लिये ही कर्म कर रहे है, कर्म हो रहे है यदि यह मापन हो जाय तो सुन्दर हो । जरूरी नही है कि यह भावना होई । मगर । तो मुन्दर । अव रहा बीचका २१वां इलोक। इममे विकर्मको ही अपमा कर्म-त्याग वन जानेकी बात कही गई है। क्योकि किल्विप या माग प्रदन तो वहीं पैदा होता है न इसका भी राम्ना माधारणत यह है जो कर्मको अकर्म बनानेका। मगर इलोकमे कुछ खास बात कही गई। ?
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