गीता-हृदय व्यक्त कर देता है। २०वें श्लोकके 'प्रवृत्तोऽपि' वगैरह भी यही बात व्यक्त करते है। हमने पहले ही कहा है कि चौथे अध्यायका अपना विषय इसी श्लोकसे शुरू होता है। इसके पहले तो दूसरे, तीसरे अध्यायके ही प्रसगकी बातें आई है। यदि कोई भी विवेकी गौर करे तो यह जरूर मानेगा कि कर्म करने और उसके त्याग या सन्यासकी यह बारीकी निहायत जरूरी चीज है जो छूटी थी । इसीलिये गीताके चौथे अध्यायने इसे पूरा किया है। इसमे भी असल चीज है कर्मत्याग या सन्यास ही। इसीके बारेमें तो उलझनें पैदा होती है और लोग अट-सट कर बैठते है, मान बैठते है । लोगोको धोके और भ्रम भी तो सन्यास या कर्मत्यागको ही लेके होते है। इसीलिये उसका खासतौरसे स्पष्टीकरण यहां जरूरी था। यह सन्यास ज्ञानका साधन है और ज्ञानके बलसे ही यह होता भी है। इस प्रकार एक तरहसे इन दोनोका परस्पर सम्बन्ध है-ये दोनो अन्योन्याश्रय- वाले है यह बात भी आगे स्पष्ट की जायगी। इस तरह यही चीजें इस अध्यायके मुख्य विषय है। इसीलिये इसे ज्ञानकर्मसन्यासयोगके नामसे ही अन्तमें कहेगे भी। इस बातका निरूपण इस १८वें श्लोकसे ही शुरू होके ३७वेतक चला जाता है। बीच-बीचमें एकाध बार ज्ञानकी बात प्रसगसे पाई है। अन्यथा आगेके १६ श्लोक इसी एक ही श्लोकके व्याख्यान स्वरूप है। अनेक प्रकारसे उनमें यही बात-इसी श्लोकका अभिप्राय–व्यक्त किया गया है । यह बात उन श्लोकोके अर्थ लिख चुकनेपर ही हम वतायेंगे। तभी समझमें आसानी होगी भी। यस्य सर्वे समारंभाः कामसंकल्पवजिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पडितं बुधाः ॥१९॥ जिस (आदमी) के सभी काम कामना तथा फल आदिकी आसक्तिके
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