५७४ गीता-हुवय काब नहीं मानना वगैरह बात भी कही गई थी जम्र। मगर कर्म और कर्म त्याग या उत्टाकर्म-विक्रम-किस सूरतमे कैसे होता है और क्यो, यह चीज अब तक कही गई न थी। यह वढी बात है । किन-किन हालतोंमें फंसे कर्म ही कर्मका त्याग या विकर्म वन जायगा-क्योकि अकर्म गब्द जो प्रागे आया है उसका कर्म त्याग और विकर्म-विपरीत कर्म-भी अर्य है। इसीलिये १७वे ग्लोकमै विकर्म गब्द पाया भी है-और किस दगामें कैसे अकर्म ही कर्म बन जायगा, इसका जानना निहायत जस्री था। नहीं तो कर्मका एक महत्त्वपूर्ण पहलू छूट ही जा । इसलिये भी कृष्णको प्रागेकी बातें कहनी पड़ी है। जो लोग ऐना गमझते है कि पागेके श्लोकोमे कर्म और अकर्मकी परिभाषा या उनके लक्षण लिखे है वह भूलते है। यदि यह बात होती तो वारवार इन्ही शब्दोका प्रयोग न करके कुछ और शब्द बोलते। तभी तो पता चलता कि कर्म यह है और प्रकर्म यह है। मगर कृष्णने तो ऐसा नहीं किया है। इसलिये यही मानना पडेगा कि उन्हें परिभाषा नही करनी है। किन्तु यही बतलाना है कि जिमे आमतौरसे लोग कर्म मानते है वही कर्म त्याग और विकर्म भी कैसे बन जाता है और जिन्हे अकर्म-कर्म त्याग या विकर्म-~-मानते है वही कर्म कैसे बन जाते है। यही वजह है कि पहले (१६वे) इलोकमें प्रथमान्त और द्वितीयान्त कर्म तथा अकर्स बोलनेके वाद और १८वेंमे ये बाते बतानेके पूर्व १७वेमे 'कर्मण', 'अकर्मण' और 'विकर्मण' इन तीनोको पप्ठ्यन्त रखते है। इससे एक तो पहले या आगेके अकर्म गब्दसे विकर्म भी लेना होगा यह अभिप्राय निकलता है । दूसरा यह कि इन तीनोके स्वस्प या लक्षणको न जानके इनके सम्बन्धमें ही कुछ जानना जरूरी है। श्लोकमे कवि शब्दका अर्थ है अत्यन्त सूक्ष्म और भूत-भविष्यको भी देव सकने वाला। उसकी भीतरी असे ऐसी है कि गहनसे गहन और
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