चौथा अध्याय ५७३ आशय यह है कि जो लोग पूर्ण आत्म ज्ञानवाले जीवन्मुक्त थे उनने तो किया ही था। मगर इस दशाकी प्राप्तिकी इच्छा या मोक्षकी कामना- वालोने भी किया था । इसलिये तुम्हे भी हर हालतमे यही करना होगा, चाहे मुक्त हो, या मुमुक्षु-मोक्ष चाहनेवाले । अब इसमे एक ही दिक्कत रह जाती है कि ऐसा ही समझके'---'एवज्ञात्वा'--का मेल दोनो अर्थोसे कैसे खायगा। ऐसा समझनेके तो मानी है यही समझना कि न तो मुझमे कर्म लिपट सकते और न मुझे उनके फलोंसे कोई काम है । और मुक्त या आत्मज्ञानी भले ही ऐसा समझे और उसका समझना ठीक ही है। फिर भी जो मोक्षकी इच्छावाला है वह ऐसा साक्षात्कार कैसे कर सकता है ? यह तो उसके लिये असभव है। इसीलिये उसके सम्बन्धमे इसका यही आशय है कि ऐसे साक्षात्कारको उद्देश्य करके ही उसने भी कर्म किया। ऐसा उद्देश्य तो ठीक ही है। उससे बन्धन तो हर हालतमें होगा ही नही। अव यहाँ पर एक नई बात उठ खडी होती है। कृष्णके दिलमे यह खयाल आ सकता था कि कही ऐसा तो नही कि कर्म करो, कर्म करो यही बात रहरहके कहने से अर्जुन समझ बैठे कि कृष्णको कोई गर्ज है; तभी तो बारबार ऐसा कहते रहते है, यहाँ तक कि जब तक जो बात पूछता भी नही हूँ तभी तक वह बात भी इस अभागे कर्मके वारेमे कह डालते और चट कह बैठते है कि कर्म करो ही। यह समझना कोई अस्वाभाविक भी नही । खूबी तो यह थी कि कृष्ण एक तो वहुत बाते यो ही बोल गये। दूसरे बाते ही कह जाते तो भी एक बात थी । मगर वह तो कर्म करो, करोका तूफान- सा मचाये हुए थे। इसलिये शक-शुभे और ऐसे खयालोकी गुजाइश जरूर थी और पूरी थी। इसीके साथ यह वात भी थी कि अब तक कर्म और उसके त्याग या सन्यासकी बात आई जरूर थी और उसे कब मानना और कैसे मानना,
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५६४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।