गीता-हृदय मनुष्य-लोकमै सिद्धि, कर्मोके फलोकी प्राप्ति या कर्मोमे सफलता जल्दी होती है, यह भी ठीक ही है । जो सुविधाये, जो अनुकूलताएँ मनुष्यको हासिल है वह पशुपक्षी या देवदानव किसीको भी नहीं मिली है, नहीं मिल सकती है। यहीकी कमाईसे तो उन शरीरोमे जाया जाता है। इसीलिये उन्हे भोग-योनि या भोगनेवाले शरीर और मानव देहको कर्म-योनि माना है। भला पढने-लिखने, सोचने-विचारने, समाधि आदि करनेकी सुविधाये और किसे प्राप्त है, सिवाय मनुष्योंके ? यहां तक कि वह अपने यत्नसे भगवान हो जाता है । मगर दूसरे ऐसा कर नहीं सकते । देवता लोगोका तो ज्यादेसे ज्यादा यही होता है कि अपनी जगहसे फिर इसी मनुष्य लोकमें आते है । वे यही यत्न करके सब कुछ प्राप्त करते भी है-"क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति" (२१) । इसीलिये इसी शरीरमे अलभ्य अवसर मिलता है कि दिव्य दृष्टि तथा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लें। अब यह प्रश्न हो सकता है कि क्यो लोग सीधे भगवानमें न लगके देवी-देवताप्रोमे फँसते है ? वे गलत या चक्करवाले रास्तेमें क्यो पडते है ? सीधा रास्ता क्यो नही पकडते ? यदि कहा जाय कि प्रकृति या स्वभावके अनुसार ही ऐसा होता है और प्रकृति तो हरेक की भिन्न-भिन्न होती ही है, तो प्रश्न होता है कि जुदा-जुदा प्रकृति या विभिन्न स्वभावके शरीर बने ही क्यो ? इनकी जरूरत ही क्या थी ? और इन्हें बनाया किसने ? यदि कहे कि भगवानने बनाया तो उसने ऐसा क्यो किया ? विभिन्नता लानेमे उसका प्रयोजन क्या था ? और अगर उसने ही यह सब कुछ किया तो समूचे करने-धरनेकी जवाबदेही उसी पर आनी चाहिये, न कि किसी और पर। इतना ही नही। इतना बडा पँवारा फैलाने, असख्य प्रकारके शरीरो एव पदार्थोके वनानेका सकट और इस कामका बुरा-भला नतीजा क्या उसे न भोगना पडेगा? अगर नही, तो दूसरे लोग
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