चौथा अध्याय ५६७ जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥६॥ हे अर्जुन, हमारे इस अलौकिक जन्म और कर्मको जो इसी तरह- मेरी ही तरह-ठीक-ठीक साक्षात् अनुभव करता है वह शरीरको छोडके-मरनेपर-फिर जन्म नही लेता (और) मुझीमे मिल जाता है---मेरा ही रूप बन जाता है ।। वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥१०॥ (यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी) जिनके राग, भय एव क्रोध निर्मूल हो गये थे, जो मुझ आत्माके सिवाय औरकी पर्वा न करके आत्मामे ही रम चुके थे (और इस तरह) जो ज्ञानरूपी तप के प्रभावसे पवित्र हो चुके थे ऐसे बहुतसे लोग मेरा स्वरूप-परमात्मा या ब्रह्म-बन चुके है ।१०। दसवे श्लोकके पूर्वार्द्धके देखनेसे तो और भी साफ हो जाता है कि पूर्व जो जानकारी की बात कही गई है वह आत्मसाक्षात्कार रूप ही है, जिसके होते ही वामदेव एकाएक बोल वैठे कि मै ही तो मनु, सूर्य आदि सब कुछ बना था-"तद्धतत्पश्यन्ऋषिर्वामदेव प्रतिपेदेऽहमनुरभव सूर्यश्च" (बृहदा १४१०) । इसीलिये इसी मत्रमे आगे साफ ही कह दिया है कि आज भी जिसे ऐसी दृष्टि मिल जाय वह भी समस्त संसारका रूप बन जाता है--समस्त जगत् को अपना स्वरूप ही देखने लग जाता है- "तदिदमप्येतहि य एव वेदाह ब्रह्मास्मीति स इद सर्वं भवति ।" यह भी देखा जाता है कि इसी मत्रमे 'वेद' शब्द आया है और देखने या दृष्टिके मानीमे ही 'पश्यन्' आया है । इसीलिये हमने जो पहले कहा है वही अर्थ वेदका है। वे श्लोकमे दिव्य कहनेका यह भी अभिप्राय है कि अवतारोके जन्म और कर्म असाधारण होते है; नकि हम लोगो जैसे । उनकी दृष्टि
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