चौथा अध्याय कहनेसे क्या प्रकाश पडता है, आदि बातोका विस्तृत विवेचन कर्मवाद और अवतारवादके प्रकरणमे पहले ही किया जा चुका है। इन श्लोकोका अभिप्राय समझनेके लिए उसे पढ लेना जरूरी है। हाँ, यह बात जुदी है कि अर्जुनके प्रश्न और कृष्णके उत्तरसे यह प्रश्न पैदा हो जाता है कि क्या उस समय तक पुनर्जन्म तथा अवतारवादका सिद्धान्त प्रचलित या सर्व- मान्य नही हुआ था ? क्योकि यदि होता तो अर्जुन भी जानता ही रहता। फिर पूछता क्यो ? और कृष्ण भी अवतार कहके ही आगे बढ जाते । दलीले न देते । मगर यह विषय बडा है और गीता हृदय के तीसरे भागके लिये ही इसे छोडना ठीक है। यहाँ यही कहना है कि "बहूनि मे व्यती- तानि" श्लोकमे कृष्णने अर्जुनको ऐसा ही मुंहतोड उत्तर दिया है जैसा उसका प्रश्न था । उनने साफ ही कह दिया है कि तुम्हें मेरे इस कथनसे बेशक आश्चर्य हुआ होगा। यह बात तुम्हारे माथेमे आई ही न होगी। मगर इसमे आश्चर्य क्या है ? ऐसी हजारो बाते है जो तुम्हारे माथे मे आ न सकी है । तुम्हें क्या पता कि हमारे और तुम्हारे हजारो जन्म हो चुके २ खूबी तो यह कि तुम्हे उनकी जरा भी, यहाँ तक कि अपने जन्मोकी भी, जानकारी तक नही है । फिर मेरे जन्मोको कैसे जानोगे ? मगर मै तो सब कुछ जानता हूँ न ? मै तो अपना भी और तुम्हारा भी शुरूसे आज तक का कच्चा चिट्ठा जानता हूँ। तुम कितनी बार कहाँ कैसे जनमे, तुमने क्या क्या किया, मै भी कब-कब कहाँ कैसे जन्म लेके क्या क्या करता रहा, यह सब कुछ बखूबी जानता हूँ, जैसे आँखोके सामने ही यह बाते नाच रही हो। जाननेका यह मतलब नही है कि लोगोसे सुनके या किताबे पढके जान- कारी हासिल कर ली जाय । ऐसी जानकारी तो अर्जुनको भी हो सकती थी। इतिहास पढ-सुनके तो सभी लोग जाने कितनी ही बाते जान जाते है। फिर अर्जुनमे ही क्या कमी थी कि इतना भी नही जान पाता?
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