चौथा अध्याय त्रेतायुगका अधिकाश और प्राय सारा द्वापर गुजरा, कोई इस योगका सिखाने-पढानेवाला रही नही गया । इसीलिये धीरे-धीरे लोग इसे भूल गये । जब परम्परा या पठन-पाठन की प्रणाली चालू रहे तभी ऐसी बाते प्रचलित रहती है। जब वही न रही तो इनका मिट जाना या लुप्त हो जाना स्वाभाविक ही है। महाभारतवाले युद्धका समय तो द्वापरका अन्त या द्वापर और कलिका संधिकाल ही माना जाता है और इक्ष्वाकुसे लेकर तब तककी मुद्दत बहुत बडी थी इसमे कोई शक हई नही। फलत. यह विद्या भूल गई। यह आम लोगोके समझकी तो चीज हई नहीं। इसे तो विशेषज्ञ और पूरे जानकार ही बता सकते है और वे होते ज्यादा है नहीं। फिर कौन किसे बतायें ? इसीलिये कृष्णने अर्जुनको साथी, श्रद्धालु तथा प्रेमी समझके ही बताया है। यही कह भी दिया है । गोप- नीय और दुर्बोध चीज यदि योंही सबोको बताई जाय तो एक तो लोग समझेगे उसे खाक नही । दूसरे उसकी कीमत भी जाती रहेगी । समझ- दार लोग भी मान बैठेगे कि कोई ऐसी ही वैसी चीज है। फलत उस तरह भी खत्म होई जायगी। पहले तो नही । मगर कृष्णकी यह बात सुनके अर्जुनको चट खयाल आया कि ऐ, यह क्या कह रहे है कि मैने सृष्टिके शुरु विवस्वानको यही बात सिखाई थी यह तो असभव है, गैरमुमकिन है। कृष्णका तो जन्म-कर्म सब कुछ मैं जानता ही हूँ। मेरे तो मामूके पुत्र ही ठहरे । फिर यह कैसे कह दिया कि मैने विवस्वानको इसका उपदेश दिया ? यह कैसे मानूं ? इसी बातको इस तरह- ? अर्जुन उवाच । अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४॥
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