५६२ गीता-हृदय - जानश्रुति पीनायण, प्रवाहण, प्रतर्दन आदि क्षत्रियोका ही विशेष उल्लेद ऐसे मामलोमे पाया जाता है। प्रवाहणको तो साफ ही राजन्यवधु लिखा है। यहां तक कि पचाग्निविद्याके प्रकरणमे छान्दोग्य (५५३७) तथा वृहदारण्यक (६।२।८) दोनो ही उपनिपदोमे साफ ही लिखा है कि जब पारुणिने अपने पुत्र स्वेतकेतुसे माफ ही कह दिया कि प्रवाहणके पचाग्नि- विद्या-सम्बन्धी प्रग्नोका उत्तर में भी नहीं दे सकता, क्योकि मै भी यह जानता ही नहीं, और इसके बाद जब दोनो वाप-बेटोने प्रवाहणके पास जाके साफ ही कह दिया कि हम तो क्या हमारे वापदादे तक भी इसे नहीं जानते थे, इसलिए आप ही बताइये, तो उमे पहले तो बडा ताज्जव और मकोच हुआ। फिर उसने कहा कि यदि ऐसा है तव क्या करूँगा, बताऊँगा जरर ही, "यथा मात्व गौतमावदो यथेय न प्राक्त्वत्त पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्यति" (छा० ५।३७), "सहोवान यथा नस्त्व गौतम मापराधास्तव च पितामहा यथेय विद्येत पूर्व न कस्मिंश्चन ब्राह्मण उवास" (बृह० ६।२।८)। इतना ही नहीं, वहाँ तो यह भी लिया है कि कोई भी ब्राह्मण यह विद्या तब तक जानता ही न था। छान्दोग्यमे यह भी लिस दिया है कि शासनकार्य क्षत्रिय ही करते थे और उन्हीको इसकी खास जरुरत भी होती थी। इसीलिये हो शायद दूसरे जान न सके । किन्तु वही लोग जानते थे- "तस्मादु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रियस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मैहोवाच" (५५३७) जो भी हो, बात बडी मज़ेदार है। यह ब्राह्मणोके इस दावेपर प्राघात भी करती है कि विद्या उन्हीकी चीज है और वही दूसरोको सिखाते है, सिखा सकते है । परन्तु हम यहां केवल इतना ही कहना है कि विद्वान क्षत्रिय राजे ही राजपि कहे जाते थे। वही इस योगको भी जानते थे । जनकके बारेमे तो ग्रारयायिका ही है कि शुकदेव आदि महापुरुप उन्हीसे ब्रह्मविद्या सीखने गये थे। कृष्णके कहनेका तात्पर्य यही है कि इस लम्बी मुद्दतम, जिसमे कि
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