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चौथा अध्याय ५६१ मनुको और मनुने इक्ष्वाकुको उपदेश किया था। इस प्रकार अन्यान्य उपदेशोके साथ ही गीतोक्त इस गीताधर्म या योगका भी उपदेश सृप्टिके आरभमे ही हुआ था। महाभारतके शान्तिपर्वके ३४६, ३४७, ३४८ आदि अध्यायोमे इस बातका विशेष वर्णन पाया जाता है कि प्रत्येक सृष्टिके शुरूमें किस तरह ऐसी बातोकी परम्परा चलती है। वही लिखा है कि सत्ययुगमें भगवानने विवस्वानको इसे बताया था। "उनने उसके बाद त्रेतायुगके शुरूमे ही मनुको बताया, मनुने लोगोके कल्याण तथा फलने- फूलनेके ही उद्देश्यसे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको और इक्ष्वाकुने बहुत लोगोको बताया। इस तरह सभी लोगोकी जानकारीमे आ जानेके कारण यह धर्म कायम रहा। मगर प्रलय होनेपर फिर यह चीज नारायणके ही पास वापस चली जायगी"-"त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्मनवे ददौ । मनुश्चलोकभृत्यर्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ ।५१। इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थित । गमिष्यति क्षयान्ते च पुनर्नारायण नृप ।५२।" यह जान लेना होगा कि यह बात किसी एक ही या खास धर्मके ही लिये नही है। प्रसगवश किसी एकके कहने पर भी प्राचीन ग्रथोंसे यही सिद्ध होता है कि सभी आवश्यक एव महत्त्वपूर्ण बाते इसी परम्पराके अनुसार प्रचलित हुईं। उन्हीमे यह गीताका योग भी एक है। हिन्दुअोके दार्शनिक ग्रथो तकमे यह मिलता है कि समाजोपयोगी सभी कलाप्रोकायहाँ तक कि वर्तन, वस्त्रादि बनानेका भी इसी प्रकार उपदेश किया गया। इसीलिये पतजलिने योगदर्शनमें लिखा है कि भगवान ही सबोका गुरु है--गुरुप्रोका भी गुरु है-"पूर्वेषामपि गुरु कालेनानवच्छेदान्” (१।२६) । दूसरे श्लोकमे जो लिखा है कि राजर्षि लोग इसे जानते थे-"इम राजर्षयो विदु", यह भी एक निराली चीज है । गीतामें लोकसग्रहके दृष्टान्तके रूपमे कृष्णने अपना और जनकका नाम कहा है । खुद तो क्षत्रिय कुलमे जनमे थे ही। जनक भी ऐसे ही थे। उपनिषदोमे भी