चौथा अध्याय ५५९ दिया। असलमे प्रश्नके उत्तर देनेपर वह मजा नही आता जो बिना पूछे ही अपने मनसे ही ताडके उत्तर देनेमे आता है। इससे एक तो सुननेवाला बाग-बाग हो जाता है। उसकी खुशीका ठिकाना नही रहता कि जो विचार उसे खटक रहे थे उनकी पूरी सफाई हो गई। इसीके साथ इससे उपदेशक की पहुँच और पूर्ण योग्यतापर भी उसे विश्वास हो जाता है। यह भी होता है कि सुननेवालेके मनमे खयाल न भी उठे। ऐसी दशामे इनका उत्तर तत्काल न दिया जानेपर आगे चलके यही प्रश्न उठ सकते और विषयको कमसे कम किरकिरा तो जरूर बना दे सकते है। क्योकि बहुत सभव है कि उस उपदेशकके न रहनेपर दूसरे लोग सारी बातोका रहस्य पूर्णतया हृदयगम न कर सकनेके कारण उन खयालो और प्रश्नोके यथार्थ और दिलमे बैठ जानेवाले उत्तर न दे सके। इसीलिये बिना कहे सुने ही- श्रीभगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥ श्रीभगवानने कहा-मैने (खुद) विवस्वान्—सूर्य-को (सष्टिके आरभ कालमे ही) इस चिरस्थायी योगका उपदेश दिया था । (उसके बाद कालान्तरमे) विवस्वान्ने मनुको (इसे) बताया था और मनुने इक्ष्वाकुको ।१॥ एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥ हे परन्तप, इस प्रकार परम्परा-गुरुशिष्यप्रणाली--से चले आने- वाले इस योगको राजर्षि लोग (जरूर) जानते थे। (मगर) वही योग दानवाले लम्बे समयके चलते यहाँ लापता हो गया था ।२।
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