५५८ गीता-हृदय पढ गया होता । हो न हो, यह एकदम नई बाते कृष्णके ही अलौकिक मस्तिष्ककी उपज है--विल्कुल ही ताजी और नई है। इससे जहाँ एक ओर उसे गर्व और फख हो सकता था कि भगवान ने मेरे ऊपर वडी ही कृपा की जो सारा रहस्य समझाया, अत मै धन्य हूँ। तहाँ दूसरी ओर इस वातकी भी गुजाइश थी कि कही ऐसा तो नहीं है कि केवल युद्धमे जुझानेके ही लिए नई-नई युवितयाँ, जो आजतक देखी- सुनी भी न गई, पेश की जा रही है । जब इस तरहकी बातें कहिये-सुनिये तो आमतौरसे ऐसे खयाल अकसर हुआ करते है कि देखो न, कितना घटाल है कि युक्तियोके नये जालमे फाँसके अपना काम निकाल लेना चाहता है। यह भी बात है कि यदि धर्मकर्मके मामलेमे लोगोको यह पता लग जाय कि एकदम नई बात कही जाती है जो पहले कभी पाई न थी और प्रचलित धारणा या रीति-रिवाजके खिलाफ है, तो लोग एकाएक भडक उठते है । यह चीज हमेशा ही देखी गई है। इसलिये कृष्णके इस अनूठे उपदेशमें भी इसकी सभावना थी और काफी थी। कृष्ण जैसे विज्ञ महा- पुरुषको इसे ताडते देर भी नही लग सकती थी। यदि इससे बचनेके लिये यह कहा जाता कि नही नही, यह तो पुरानी ही बात है, प्राचीनतम है, जिसे कृष्णने फिर दुहराया है, तो शका हो सकती थी कि उन्हें यह मालूम कैसे हो सकी ? जब साधारणत इसका उपदेश होता-जाता ही नही और न चर्चा ही सुनी जाती है-जब यह लापता है, तो एकाएक कृष्णको मालूम कैसे हो गई ? यह भी तो दिमागमे आ सकनेवाली बात नही है कि उन्हे योही विदित हो गई। पूर्ण व्यवहारकुशल होनेके नाते, और अर्जुनकी भावभगीको देखकर भी, कृष्णके मनमे स्वयमेव ये सारे खयाल आ जाने जरूरी थे । आ गये भी। इसीलिये उनने अर्जुनको प्रश्न करनेका मौका तक नही देकर स्वयमेव चौथे अध्यायके आरभके दस श्लोकोमे इस बातका पूरा खुलासा कर
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