तीसरा अध्याय ५५५ उनमे फँस जाते है, इसीलिये इसे दुरासद कहा है। ताकि लोग सजग रहे। इस अध्यायमे साधारणसे साधारण कर्मोसे ही शुरू किया है और अन्ततक उसीकी बात कहते आये है। मामूलीसे मामूली कमसि लेकर ऊँचेसे ऊँचे या कर्मयोगतकका वर्णन इसमे आ गया है । “मयि सर्वाणि" (३।३०) मे आखिर है क्या यदि कर्मयोग नही है ? इसलिये समूचे अध्यायपर कर्मकी ही छाप लगी है। यही कारण है कि ज्ञानकी जो बात आई है वह गौण या अप्रधान है । वह या तो उसीका साधन है या मस्तीका ही; जैसा कि “यस्त्वात्मरति." (३।१७) मे कहा है । फलत कर्मकी प्रधानताके कारण इस अध्यायका विषय कर्म ही है। जैसे दूसरे अध्यायका विषय साख्य या ज्ञान है । ज्ञानसे ही शुरू करके बीचमे और अन्तमे भी उसीका वर्णन है । कर्म तो बीचमे ही आया है, सो भी अप्रधान रूपसे ही। इति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषन्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ श्रीमद्भगवद्गीताके रूपमे उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योग- शास्त्रमे जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय यही है।
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