५५२ गीता-हृदय एवं वुद्धेपरं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रु महाबाहो कामरूप दुरासदम् ॥४३॥ हे महाबाहो, बुद्धिके भी ऊपर रहनेवाली आत्माको इस प्रकार जान- कर और स्वयमेव म को रोकके, वशमें करके बडी दिक्कतसे पकडे जाने- वाले कामरूपी इस (त्रुको खत्म करो ।४३। यहाँ दो एक जर री बातें जाने विना अन्तके चार-पाँच श्लोकोंके अर्थ समझने में दिक्कत होगी। इसीलिये वे बाते कह देना जरूरी हैं। यह तो दूसरे अध्यायमे ही कह चुके है कि काम और क्रोध एक ही चीजें है। उसीकी सफाई यहा की गई है। सोलहवे अध्यायके अन्तमें इन्हीं दोके साथ लोभ भी जुट गया है "काम क्रोधस्तथा लोभ" (१६।२१) । जिस तरह काम और क्रोध एक है, उसी तरह लोभ भी कामसे भिन्न नही है। असलमें इस कामा, कामना, वासना या इच्छाके ही ये क्रोध और लोभ दो रूप है, जो परिस्थितिवश बन जाते है—कामको ही क्रोधके रूपमे और लोभके रूपमें परिणत हो जाना पडता है। जिसे कामना नही उसे क्रोध और लोभसे भी कोई ताल्लुक नही है । क्रोधसे कैसे भीतर अन्धकार हो जाता है यह "क्रोधाद्भवति समोह "के अर्थमें स्पष्ट दिखा चुके है । उसीको आवरण या पाके रूपमें यहां कहा है । यह काम ही विवेकी जनोका असल शत्रु है। इसका नाश इसीलिये जरूरी है। मगर इसके अड्डेका पता चले तब न इसपर धावा बोले? इसलिये इन्द्रिय, मन और बुद्धि इन तीनोको ही इसका अड्डा बता दिया है। यह रहता तो है दरअसल अन्त करणभरें और उसीके रूप है मन और बुद्धि । मगर इन्द्रियोंके बिना बाहर तो मन या बुद्धि जा नही सकती और बाहरी पदार्थोमे ही रागद्वेष होते है। बाहरी तात्पर्य है भौतिक पदार्थोसे । इसीलिये इन्द्रियोको भी अड्डा करार दिया है। बुद्धि यदि ठीक हो, विवेक- युक्त हो तो भी काम रहेई न । इसीलिये उसे भी इसका डेरा कहा है ।
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