गीता-हृदय . और पूरा हक या अधिकार सिर्फ कर्मतक ही है"-"कर्मण्येवाधिकारस्ते ।" इसका आशय यह है कि हमे उस वृत्तके भीतर ही मीमित या बचे रहनेका ही हक है-हमे उसके भीतर ही रहना चाहिये । परिधिको उकना नहीं चाहिये-परिधि डांकनेका यत्न हर्गिज करना नहीं चाहिये । 'सामणि'के प्रागे जो ‘एव' शब्द है वही डांकनेकी मनाही करता है, हम डापनेने रोकता है। लेकिन यह तो मून जैमो बात हो जाती है। इनका स्पष्टीकरण हो जाना जरूरी है। इसीलिये ४७वे श्लोकके शेष तीन चरण (हिम्गे) ४८वा-दोनो ही यहो स्पष्टीकरण करते है। कर्मको वृत्त करार देनेपर मान ले फि करनेवालेके भागे वह वृत्त है और उसके तथा वृत्तके बोचमे किसी और चीजकी मभावना है जिसने उसका वृत्तके साथ अत्यन्त निकटका सम्बन्ध न होके चमे वही चीज या सकती है-आ जाती है और इस तरह वृत्तमें घुमनेमे उसे बाधा पहुंचाती है। उसी तरह वृत्तके भीतर घुमनेके बाद वृत्तके बाहर उस आदमीके सामने वृत्तके दूसरे किनारेके उस पार भी कोई वस्तु है । मतलव यो समझे कि हम पूर्व मुस सडे है और हमारे प्रागे एक वृत्त है । मगर वृत्त और हमारे बीचमे भी कोई चीज है या हो सकती है जो हमे वृत्तम जानेसे या तो रोकती है, या इतना ही होता है कि हम वृत्तमे जानेके पहले उम वस्तुसे होकर ही गुजरते है और सामनेकी परिधि पार करके सीधे वृत्तमे पूर्व मुख खडे ही पहुँच जाते है। फिर वृत्तमे जानेपर जब परिधिका पिछला भाग न देखके सामनेवाला ही देखते है, तो उसके आगे-परिषिके पार-पूर्व अोर कोई दूसरी वस्तु भी नजरको आकृष्ट करती है, कर सकती है। साथ ही परिधिके भीतर वृत्तमें पांव देनेके पहले जो यह कहा गया है कि किसी और चीजसे गुजरने के बाद ही वृत्तमे पांव दे सकते है, वह चीज एक भी हो सकती है और दो भी। गीताने शुरूमे ज्यादेसे ज्यादा दो चीजोकी और पीछे चलकर वृत्तके बाहर प्रागेकी एक चीजकी
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