५४४ गीता-हृदय है कि तत्त्वज्ञानियोके अलावे ये कोई दूसरे ही है। तत्त्वज्ञानियोंके कर्मोंसे छुटकारेकी बात तो पहले कही चुके । अव उसका कोई मौका हई नही। अव तो नई बात कहनी है । तत्त्वज्ञानियोंके लिये श्रद्धा और निन्दा न करने- की बात भी नही आती। वे तो इन सभी बातोंसे बहुत दूर और ऊपर होते है। उनके नजदीक भी कर्म नही फटक पाता। फिर उससे छुटकारे- का क्या सवाल ? इसीलिये अनुष्ठान या काम करनेकी कोशिश करते है, यही अर्थ हमने किया है। यही उचित भी है। इसलिये नित्य या बराबर कहना भी ठीक होता है। क्योकि बरावर कोशिश किये बिना सफलता नही मिलती है । ज्ञानीके लिये तो बराबरकी बात हई नही । उसके लिये यह कहना बेकार है । उस कोशिशमें ही श्रद्धाका होना और निन्दा-बुद्धिका न होना भी सहायक होता है। इसीलिये जरूरी है। श्रद्धा एव अनसूया का इतना ही अर्थ है कि ईमानदारी के साथ दिलोजान से यत्न किया जाय। ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढास्तान् विद्धि नष्टानचेतसः ॥३२॥ विपरीत इसके जो लोग मेरे इस सिद्धान्तकी निन्दा करते हुए इसके अनुष्ठानका यत्न नहीं करते, समझ लो कि उन्हें किसी बातकी जरा भी जानकारी नही है । है वे निर्बुद्धि और, चौपटानन्द ही ।३२। सदृश चेष्टते स्वस्या. प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रह. किं करिष्यति ॥३३॥ ज्ञानी भी (तो) अपनी प्रकृतिके अनुसार ही चलता है। (क्योकि) सबोको प्रकृतिके अनुकूल ही चलना होता है। इसमें रोक-थाम क्या करेगी? ३३॥ इस श्लोक और इसके वादके दो श्लोकोको समझनेके लिये एक तो इसके स्थान और प्रसगको ठीक-ठीक जानना होगा। दूसरे पूर्वके
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