तीसरा अध्याय ५४३ कहनेकी जरूरत हुई है कि पीछे तो कर्मोके स्वरूपत सन्यासकी जरूरत नही होती । यो स्वयमेव छूट जायें यह बात दूसरी है। तो फिर होता है क्या ? होता है यही कि तत्त्वज्ञानके फलस्वरूप कर्मोको अपनेमे, आत्मामे तो सटने देते नही-कर्म आत्मामे तो रहने पाते नहीं। वहाँसे तो निकाल बाहर कर दिये गये | फिर वे रहे कहाँ यह सवाल होनेपर उत्तर मिलता है कि जहाँ सारी दुनिया रहती है। यह दुनिया तो भग- वानमे ही रहती है यह बात “मयिसर्वमिद प्रोत" (७७), “यो मा पश्यति सर्वत्र" (६।३०), "वासुदेव सर्वमिति” (७१६), "यस्यान्त स्थानि भूतानि" (८।२२),“मत्स्थानि सर्वभूतानि" (81४) प्रादिमें साफ ही कही गई है । इसीलिये "ब्रह्मण्याधाय कर्माणि" (५।१०) मे भी कर्मोको ब्रह्ममें ही स्थापित कर देनेकी बात कही गई है। वही बात यहाँ भी है । ज्ञानी यही समझता है कि मै तो कुछ कर्ता-वर्ता नही । सृष्टिका काम चलता है तो चले। इसमे अडगा डालनेवाला मै कौन ? मै ऐसा करूँ भी क्यो? जिसकी यह सृष्टि है वह जाने और उसका काम जाने । मुझे इसकी फिक्र कि ये मेरे कर्म कहाँ रहेगे और क्या करेगे? इन सभी वाहियात खुराफातोका भार मेरे ऊपर तो है नही । यही है तत्त्वज्ञानपूर्वक कर्मोका भगवानमे अर्पण, निक्षेप, स्थापना या सन्यास । ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यते तेऽपि कर्मभिः ॥३१॥ जो मनुष्य हमारे इस सिद्धान्तके अनुसार काम करनेकी बराबर कोशिश करेंगे और मेरी वातोमें श्रद्धा रखनेके साथ ही निन्दाकी जरा भी भावना न रखेगे उनका भी कर्मोसे छुटकारा होगा ।३१। इस श्लोकमे यद्यपि 'अनुतिष्ठन्ति' शब्द है, जिसका अर्थ होता है कि मेरे मतके अनुसार अनुष्ठान या काम करते है। फिर भी यह ठीक नही है। क्योकि उत्तरार्द्धमे जो 'वे भी-तेऽपि' लिखा है उससे पता चलता
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