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गीताका योग गीताका योग योग शब्दके कितने अर्थ गीतामे माने गये है यह बात तो आगे वताई जायगी। मगर गीताका जो अपना योग है , जिसका ताल्लुक कर्मयोगसे है और जो गीताकी अपनी खास देन है वह जाननेकी चीज है। यो तो उमका जिक्र कई स्थानोपर आगे भी पाया है। लेकिन दूसरे अध्यायके "एषा तेऽभिहिता" (३६) श्लोकसे जिस योगकी भूमिका शुरू करके "कर्मण्येवाधिकारस्ते" (४७) तथा उसके बादवाले (४८वे) श्लोकमे. जिस योगका वर्णन है वही गीताका निजी योग है । इन दोनो श्लोकोंको मिलाकर ही उसका रूप पूरा हुआ है । अागेके ५०वे श्लोकमे उसो योगका निचोड या सक्षिप्त रूप “योग कर्मसु कौशलम्" शब्दोमे वताया है। लोग कही ऐसा न समझ बैठे कि पहले वताया गया योग कोई दूसरी ही चीज है, इसीलिये गीता साफ कहे देती है कि वह और कुछ नही है सिवाय कर्म करनेकी चातुरी, उसकी कुशलता, विशेषज्ञता (special- ism) के । जोई मनुष्य कोके करनेमे विशेषज्ञ (specialist) हो जाता है उसे ही योगी या कर्मयोगी कहते है । उसे ऐसी हिकमत मालूम हो जाती है कि कर्मोके करते रहनेपर भी वन्धनमे नही फंस सकता और निर्वाणमुक्ति या ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त कर लेता है । योग शब्दका यो भी युक्ति या उपाय अर्थ माना जाता है और कर्मके सम्बन्धकी यह हिकमत भी युक्ति ही तो है। यह युक्ति, हिकमत या विशेषज्ञता क्या है और कैसे प्राप्त होती है, यही वात ४७ और ४८ श्लोकोमे बताई गई है। अगर कर्म, क्रिया, काम या अमलको हम दायरे या वृत्तके रूपमे मान ले तो यह बात समझनेमे आसानी होगी। तब तो कर्म करनेका मतलब होगा मनुष्यका उस वृत्तमें घुसना । गीताकी नजरोमे कर्म करनेवालेके लिये कहा गया है कि "उसका 1