५३८ गीता-हृदय मगर विद्वान होनेपर बडे-बडे पोचोंके अभ्यास करनेका कप्ट, यदि कुछ भूले तो उनका, अगर कही विवादमे हारे तो उसका और न हारनेपर जबर्दस्त मांटकी तरह गर्वका, इस तरह कुल सात कप्ट हो जाते है । कहां चले थे तीनोंसे पिंड छटाने और कहाँ चार और जुट गये । “चौवे गये दूबे बनने तो छच्चे होके लौटे"वाली बात हो गई । इसीलिये नारदने मनत्कुमारमे कहा था कि महाराज, कोई रास्ता बताइये, नहीं तो यह तो वला हो गई और लेनेके देने पड गये । जितना ही पढा और पोयो. पुराण उलटा उतनी ही श्राफत बढती गई, जैसा कि (छान्दोग्य ७।१।१-३) तथा "वेदाभ्यासात्पुरातापत्रयमात्रेण दु खिता। पश्चात्त्वभ्यासविस्मारभग- गर्वेश्च शोकिता" (पचदगी ११।१६)मे लिखा है। जब दोनो ही गकी तरह दिनरात कोंमे सटते-मरते ही रहेंगे, तो सचमुच ही दोनोमें फर्क होगा क्या ? इसका उत्तर यह है- सक्ता फर्मण्यविद्वासो यथा कुर्वन्ति भारत । फुर्याद्विद्वॉस्तयाऽसक्तश्चिकीर्षुझेकसग्रहम् ॥२५॥ हे भारत, कर्मोमें लिपटे-चिपटे अनजान लोग जिस तरह उन्हें (पूरा दिल लगाके) करते है विद्वान भी वैसा ही दिल लगाके करे। (मगर फर्क यही रहे कि एक तो वह) उनकी तरह लिपटा-चिपटा न रहे या हाय- तोवा न करे। दूसरे उसका लक्ष्य लोकसग्रह ही रहे ।२५॥ जो लोग खयान करते है कि निजी स्वार्थ न रहने और प्रासक्ति सत्म हो जानेपर कर्म उतनी सूबी और लगनके साथ नहीं किये जा सकते, उनका उत्तर भी इसीमे आ गया है। विद्वानका अपना तो समस्त ससार ही हो जाता है-उसका परिवार तो बहुत विस्तृत एव व्यापक हो गया। इसीलिये उसकी लगन कर्मोमे और भी तेज हो जाती है। यह हाय-तोवा न रहनेके कारण उसकी सारी दृष्टि इधर-उधर न बँटके कर्मपर ही रहनेसे कर्म और भी खूबी तथा सुन्दरताके साथ पूरा होता है । यही तो है कर्मके
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