तीसरा अध्याय ५३७ गई है। किन्तु जहाँ ब्रह्मा, व्यास प्रादिके बारेमे उसने व्यभिचार आदिकी बाते लिखी है तहाँ कृष्णके बारेमे उसे सिर्फ पूर्वोक्त दोष ही नजर आये है। लेकिन यदि भट्टपादके समयमे रासलीलाकी बात प्रसिद्ध होती तो वह नास्तिक के मुँहसे जरूर ही वही बात कहलवाते । वह साधारण लोगोके समझमें आनेकी बात भी थी। मगर शराब पीने या मामूकी कन्यासे शादी करनेकी बात तो कुछ ऐसी ही है। फलत मानना होगा कि नवी शताब्दी तक, जब कि भट्टपाद हुए, रासलीलाका पता कही न था। यह तो उसके बाद ही पोथियोमे घुसेडी गयी मालूम पडती है। खूबी तो यह है कि कुमारिलने समाधान करते हुए जहाँ लिखा है कि रुक्मिणी सचमुच मामूकी लडकी न थी, वही यह भी लिखा है कि जो कृष्ण ससारके लिये आदर्श-स्थापक थे वही खुद विरुद्ध काम भला कैसे कर सकते थे? फिर उनने गीताके उन्ही श्लोकोको उद्धृत भी कर दिया है कि "मम वानुवर्तेरन्मनुष्या पार्थ सर्वश । यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन । स यत्प्रमाण कुरुते लोकस्तदनुवर्तते" (३।२३।२१) । उनका यह उद्धरण बडे कामका है और वस्तुस्थितिको बताता है । उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्या कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥२४॥ (नतीजा यह होगा कि) यदि मै कर्म न करूँ तो ये सभी लोग- सारी दुनिया ही चौपट हो जायें। (इस तरह) मै ही वर्णसकर करनेका जिम्मेदार बन जाऊँ (और) इस सारी प्रजाका नाशक हो जाऊँ ।२४। खयाल हो सकता है कि जब सबोको एक ही लाठीसे हाँका जाता है, जब कर्मोका करना विद्वान-अविद्वान या ज्ञानी-अज्ञानीके लिये समान रूपसे ही जरूरी है, तो फिर दोनोमे फर्क रही क्या जाता है ? ज्ञानीकी विद्वत्ताने उसे क्या किया ? यह तो कुछ उलटीसी बात हो गई । अविद्वान- को आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक ये तीन ही कष्ट होते है। --
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