तीसरा अध्याय है। इसके बाद भी वही बात है । तो फिर बीचमे यह कर्मयोगीकी बात कैसे आगई ? और उसका प्रसग भी कौनसा आ गया ? लोकसग्रहकी बात तो “कर्मणैव हि" (३।२०) श्लोकमे फौरन ही आगे कही गई है। फिर एक श्लोक पहले भी उसे कहनेका क्या मौका ? यही नही । २०से २६तकके श्लोकोमे इस लोकसग्रह और परोपकारकी बात बहुत विस्तारसे लिखी गई है । फिर यहाँ कैसे बेमौके आ गई ? सो भी अधूरी ? किसी-किसीको बारह महीने हरियाली ही सूझनेकी बात ठीक नही । सर्वत्र एक ही चीज को देखने और बतानेकी कोशिश उचित नही है। तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥१६॥ इसलिये आसक्ति छोडके-पूर्व बताये ढगकी हायहाय छोडके-- अपना कर्त्तव्य कर्म ठीक-ठीक करते रहो। क्योकि आसक्ति छोडके कर्मोको करनेसे मनुष्य परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।१६। लेकिन यदि परमात्माको प्राप्त करना न हो तो ? जो लोग आत्मज्ञानी और जीवन्मुक्त है उन्हें न तो कोई सासारिक-पदार्थ ही प्राप्त करने योग्य रहते है और न परमात्मा ही। वह तो खुद ही परमात्मा- निर्वाण-ब्रह्म-हो जाते है । फिर वह क्यो कर्म करेगे ? वह तो नही ही करेगे न ? नहीं नही, वह भी करेगे, यदि पूरे मस्तराम परमहस न हो गये हो। यदि पूछे कि क्यो ? तो सुनिये-). कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥२०॥ आखिर ससिद्धि-ब्रह्मनिर्वाण-को प्राप्त हुए जनक आदि भी (तो) कर्म करते ही रहे-उनने कर्मको ही अपना साथी बरावर बनाये रखा । इसलिये लोकसग्रह-ससारका पथप्रदर्शन करनेका ही ख्याल
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५२४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।