५२८ गीता-हृदय मिनट भी टिक सकता नही । जव हरेकको अपनी अपनी ही सूझी तो समाज रहेगा कैसे ? वह तो उसी क्षण खत्म हो गया। ऐसे स्वार्थी होनेपर कोई भी कायम नही रह सकता। जबतक एक दूसरेकी फिक्र और पर्वा कम-वेश न करे सभी मर मिटेंगे। किसीका भी काम चल सकेगा ही नही। इसीलिये ऐसे कामको पाप और बुराई कहा है। मनुने यज्ञशिष्ट पदार्थको अमृत कहा है। उनका यज्ञ उतना व्यापक नहीं था। केवल देवपितरोंके लिये जो कर्म होते थे उन्हीको उनने यज्ञ माना था। इसीलिये यज्ञके सिवाय दूसरे परोपकारी कामोमें जो चीज लगे उसके शेषको उनने विघस नाम दिया था। "यज्ञशिष्टामृतभुज" (४॥३१)में गीताने भी यज्ञशिष्टको अमृत ही कहा है । जो वात गीताके १३वें श्लोकमें लिखी है वही मनुस्मृतिमें भी यो लिखी है कि "अघ स केवल भुक्ते य पचत्यात्मकारणात् । यज्ञशिष्टाशन ह्येतत्सतामन्न विधीयते" (३। ११८)। इस श्लोकमे गीताके ही अधिकाशको अक्षरश दे दिया है। पूर्वार्द्ध तो प्राय जैसेका तैसा ही गीताके श्लोकका उत्तरार्द्ध है। पूर्वार्द्धमें भी गीताके उत्तरार्द्धका आधा प्राय ज्योका त्यो और उसके 'सन्त 'की जगहपर ही 'सता' दे दिया है। पुराने समयमें इस यज्ञका इतना ज्यादा महत्त्व था कि ऋग्वेदमे भी गीताके "भुजतेतेत्वध पापा'की ही तरह लिख दिया है कि "नार्यमण पुष्यति नो सखाय केवलाघो भवति केवलादी" (१०।११७।६) । मत्रके देखनेसे यह भी पता चलता है कि ऋग्वेदके समय यज्ञका व्यापक अर्थ गीताकी ही तरह माना जाता था। इसीलिये अर्यमा और सखाकी पुष्टिकी बात इसमे आई है। अर्यमा मेघ सरीखे देवताको और सखा बन्धुबान्धवको कहते है। आगे जिस यज्ञचक्रका वर्णन है उसका सक्षिप्त रूप प्राय इसी तरहका मनुस्मृतिमें यो पाया जाता है, "अग्नौप्रास्ताहुति सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिदृष्टेरन्न तत प्रजा" (३।७६) । महाभारतके
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