तीसरा अध्याय ५२५ और "दु खमित्येव” (१८१८) मे भी तामस और राजस कहके इस सन्यास- को निन्दित बताया है । “न बुद्धिभेद जनयेत्” (३।२६) मे भी इसी बातपर पूरा जोर दिया गया है कि सर्वसाधारण लोग हर्गिज कर्म न छोडे । इस प्रकार इस विवेचनने सन्यासका मार्ग अर्जुनके दिमागमे साफ कर दिया है और कर्म करनेका भी। अब आगे जो कुछ विवेचन इस कर्मका किया जा रहा है वह इसी दृष्टिसे कि समाजका काम चलाने, उसे कायम रखने और उसकी प्रगतिके लिये कर्म अनिवार्य रूपेण आ यक है । इनके बिना एक क्षण भी समाजका काम चल नही सकता है। यज्ञचक्रके रूपमे इन कर्मोंका जो वर्णन किया गया है उसका रहस्य तो पहले ही बताया जा चुका है। यज्ञोका सकुचित अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है, यह बात १०से १३तकके श्लोकोसे ही, जो यज्ञ- चक्रके निरूपणके ठीक पहले आये है, सिद्ध हो जाती है। दसवें श्लोकमे जो ‘प्रसविष्यध्वम्” तथा “कामधुक" शब्द आये है उनका अर्थ है फलना, फूलना और विस्तार प्राप्त करना । इनके भीतर तो ससारके सारे काम आ जाते है । कोई भी बचने नही पाता । यह बात सर्वसाधारणके द्वारा आमतौरसे माने गये घृत आदिकी आहुति रूपी यज्ञोसे तो होनेकी नही । यह दावा तो इन यज्ञोके समर्थक भी नहीं करते कि इन्हीसे सब काम हो जायगा । फलत खेती, गिरस्ती आदिकी जरूरत हई नही। कामधेनु कहनेसे भी यही बात सिद्ध होती है कि यह सब कुछ देने वाली चीज है । "इष्टान् भोगान्" (३।१२) मे यही कह भी दिया है। इसीलिये देव शब्दका अर्थ भी रूठ नही है। यहाँ खास ढगके देवताओसे मतलब न होके दिव्य या अलौकिक शक्ति, प्रतिभा आदि सम्पन्न सभी पदार्थोंको देव कहते है। इसीलिये गीताने यज्ञोका अनेक विस्तृत रूप स्वय बताया है। हमने भी इसपर पूरा प्रकाश डाला है। यज्ञके रूपमे ही कर्मोपर जोर देनेके लिये ही आगेके श्लोक लिखे गये है ।
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