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५२४ गीता-हृदय मोह और भ्रममे पडके प्रवचना वुद्धिसे या शरीर, इन्द्रियादिके कष्टके खयालसे ही कर्मोको स्वरूपत छोड देना । (४) फलेच्छा, अभिनिवेश, कर्म करनेकी त्रासक्ति और हठ आदिका ही त्याग न कि स्वरूपत कर्मोंका त्याग । इनमे चौथेको तो कर्मका त्याग वस्तुत कही नही सकते । इस दशामें तो कर्म बने ही रहते है । गीताने भी “नियत सगरहित" (१८।२३) में इसे सात्त्विक कर्म ही गिनाया है। इसलिये इसे तो छोड ही देना चाहिये । इसपर विचार करनेका प्रश्न आता ही नहीं । रह गये तीन । बेशक इन तीनोमे कर्मका स्वरूपत त्याग है। इसी- लिये इन तीनोको कर्मत्याग या सन्यास शब्दसे समझ सकते है जरूर । इनमे जो तीसरा है उसकी बात इसी अध्यायके शुरूमें ही और आगे भी अाई है । इसलिये शेष दो या पहले तथा दूसरेको ही पहले देखना चाहिये । "योगसन्यस्तकर्माण" (४।४१), "सन्यासस्तु महावाहो" (५।६) और "योगारूढस्य तस्यैव शम कारणमुच्यते" (६॥३) श्लोकोमे पहलेको यानी समाधि आदिके लिये कर्मोंके त्यागको आवश्यक और उचित बताया है । “सर्वधर्मान्परित्यज्य” (१८।६६) मे इसीका उपसहार भी किया है। इसी तरह “यस्त्वात्मरतिरेवस्यात्" (३।१७) से स्पष्ट है कि दूसरा सन्यास या स्वयमेव कर्मोका छूट जाना भी गीताको मान्य है। इसकी आवश्यकता एव महत्ता भी वह समझती है। द्विविध निष्ठाप्रोका जो वर्णन दूसरे, पाँचवें और छठे अध्यायोमें खासतौरसे आया है और दोनोको जो वहाँ परम कल्याण या मोक्षके देनेवाले माना है, उससे भी इसकी कर्त्तव्यता निर्विवाद सिद्ध हो जाती है। इस बातका अधिक विवेचन पहले ही किया गया है। अब रहा तीसरा या मोह और कष्टके डरसे कर्मोंका त्याग । इसीकी वहुत ज्यादा निन्दा तीसरे अध्यायके इन्ही श्लोकोमे बार-बार की गई है। इसका विवेचन हमने अभी किया है। "नियतस्य तु” (१८७)