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तीसरा अध्याय ५२३ ऽर्जुन” (१८६), "नियत सगरहित” (१८।२३) आदिमे यह बात पाई जाती है। नियत या निश्चित कहनेका यह मतलब है कि यो तो खानपान आदि कर्म सभी लोग करते ही है। इनमे तो सबोकी मजबूरी है। मगर इनके सिवाय कुछ ऐसे कर्ग है जिनमे ऐसी मजबूरी न होनेपर भी उनका करना समाजहितकी दृष्टिसे और अपने अन्तिम कल्याण या उदात्त स्वार्थ (enlightened self-interest) के खयालसे भी जरूरी हो जाता है। ऐसे कर्म या तो समाजके द्वारा ही हरेकके लिये तय कर दिये गये है, या ऋषि-मुनियो, औलिया-पैगम्बरो तथा वडे-बूढोने उन्हे वताया है और समाजने या खुद व्यक्तियोने भी उन्हें अपनाया है। इसीलिये वे नियत और नित्य (assigned and fixed) माने जाते है । आश्रितोकी रक्षा, देश या घरबारके लिये लडना, पीडितोकी सेवा, सन्ध्या, पूजा, नमाज, प्रार्थना (prayer) अादि ऐसे कर्मोंमे आते है । जब कर्मोके करने-न करनेकी वात कही भी आती है तो इन्ही से मतलब होता है । न कि सामान्य कर्मोसे । मलमूत्र त्याग, खानपान आदि तो बिना कहे ही मजबूरन करने ही होते है । उनके बारे में करनेका विधान या उसकी ताकीद वेकार है । मगर नियत कर्मोमे आलस्य आदिके चलते लापर्वाही हो सकती है, हो जाती है । इसीलिये इनपर जोर देना और इनके लिये ही नियम-कायदे बनाना जरूरी हो जाता है । जब सन्यास और कर्मत्यागका सवाल आता है तो इन्ही कर्मोके त्यागसे मतलब होता है । एक वात और भी जान ले तो अच्छा हो। जहाँतक कर्मोके त्याग या सन्याससे ताल्लुक है, गीताने चार सूरते मानी है। (१) मनकी शुद्धि हो जानेपर तत्त्वज्ञानके साधन-स्वरूप निदिध्यासन और समाधिकी सिद्धिके लिये कर्मोका स्वरूपत त्याग। (२) तत्त्वज्ञानके बाद मस्ती आ जानेपर खुदवखुद कर्मोकी ओर मानसिक प्रवृत्ति न होनेसे अल- बुद्धया स्वस्पत कर्मोका वैसे ही छूट जाना जैसे पके फलका डालसे। (३)