पूजाके भेद ३३ 'स्वकर्म'को ही पूजाके रूपमे बताया है। खूबी तो यह है कि 'स्वधर्म' भी नहीं कहके 'स्वकर्म' कहा है। धर्म और कर्म गीताकी नजरोमें तो पर्यायवाची है और दोनोका एक ही अर्थ है । मगर सर्वसाधारणका खयाल तो ऐसा है नहीं। वे तो धर्म कुछ और ही चीज मानते है । साधारण क्रियाको तो वे धर्म मानते नहीं। उनके लिये तो विशेष प्रकारका कर्म ही धर्म है । इसीलिये यहाँ 'स्वकर्म' कह दिया है। ताकि लोग भूलभुलैयामे न पडे रहे और क्रिया मात्रको ही पूजा के रूपमे समझने एव माननेकी कोशिश करे, ऐसा ही माने । श्रीमद्भागवतमे भी राजा रहूगण और मस्तराम जडभरतके सम्वादमे कहा गया है कि “स्वधर्म आराधनमच्युतस्य यदीहमानो विजहात्यघौघम्" (५।१०।२३)। इसका आशय यह है कि "अपने कर्तव्योका पालन करना ही भगवानकी पूजा है, जिसके चलते पापका पहाड़ भी खत्म हो जाता और नजदीक नही पाता है।" रहूगणने अपने राज्यकार्य सचालन और शासन आदिको ही लक्ष्य करके ऐसा कहा है। लोग यह न समझे कि दड देनेका काम तो वीभत्स है, इसीलिये उनने कह दिया है कि वह तो राजाका कर्तव्य होनेके कारण भगवत्पूजा ही है । बेगक, यहाँ स्वकर्म न कहके स्वधर्म कहा है। मगर मतलव एक ही है। यदि दड आदि रूप सख्त काम और अमल एव मारकाट तथा युद्धको पूजा कह सकते है, ये सभी काम यदि पूजा ही है, तो लोगोके सभी साधारण कामोका क्या कहना ? वे तो आसानीसे उस पूजाके भीतर आई जाते है। यहाँ 'स्वधर्म' और गोतामे जो 'स्वकर्म' कहा है इन दोनोमे 'स्व' शब्द देकर यही बताया गया है कि खुद कर्मोके अच्छे बुरे होनेकी कोई वात नही । अपने-अपने कर्म ही पूजा बन जाते है। उनकी वाहरी वनावट और रूपरेखा कोई चीज होती नहीं। इसीलिये अपने ३
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