५१८ गीता-हृदय है, न कि और कुछ । अर्जुनके दिमागकी सफाई करनी थी। इसीलिये शुरूसे ही क्या कर्त्तव्य है, यही बात उठाके अन्ततक जाना जरूरी हो गया है। नही तो वह फिर भी घपलेमें पड जाता, यदि चुनी-चुनाई वातें ही कही जाती। इसके बाद पांचवे श्लोकमें तो यह बात भी खत्म कर दी गई है कि खामखा योही कर्मोका त्याग सभव है। चौथेके उत्तरार्द्धमें यह बात मानकर ही, कि कर्मोंका त्याग सभव है, उत्तर दिया है कि उससे सारा गुड गोवर होनेके अलावे कोई मतलब पूरा नहीं होता। मगर अब तो जडको ही उडा देते है यह कहके कि कर्मोंका त्याग ही असभव है । प्रकृतिके तीन गुण माने जाते है। इस बातका विस्तृत विवेचन पहले कर चुके है। ये परस्पर-मिथुन कहे जाते है, जिसका मतलव यही है कि तीनो ही सर्वत्र मिले-जुले रहते है। इन तीनोमे रजका तो काम ही है क्रिया या कर्म । उसका तो स्वरूप ही है कर्म या हलचल (action and motion)। फिर यह कैसे सभव है कि कोई भी पदार्थ एक क्षण भी निष्क्रिय रहे । तीनो गुणोंके अलावे तो कोई भी भौतिक पदार्थ है नहीं। ऐसी दशामें शरीर या इन्द्रियादि यदि क्षणभर भी निष्क्रिय रहे तो इसके साफ मानी है कि उनमे गुण हई नही । मगर यह तो बात है नही । ससार ही वैगुण्य माना गया है। तब अपना स्वभाव कोई कैसे छोडेगा ? शरीरादि का तो स्वभाव ही है हिलना-डोलना या हलचल । जब हमारी प्रॉखे इसका पता नही भी पाती है तब भी प्रयोगशालामें जाने या यत्रोंके प्रयोगसे पता लगता है कि क्रिया बरावर चालू है । उसे विराम नही । इसीलिये कह दिया है कि कर्म या क्रियाकी तो मजबूरी है। इससे पिंड छूट सकता ही नही । ससारका अर्थ ही है क्रियाशील या चलनेवाला। इसीलिये जो लोग जबर्दस्ती कर्म करनेवाली इन्द्रियोको रोकते है, रोकना चाहते है, उनका काम अप्राकृतिक है, प्रकृतिके नियमोंके विरुद्ध
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५०९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।