तीसरा अध्याय ५१५ यहाँ निष्ठाका अर्थ है मार्ग या रास्ता, जिसे अग्रेजीमे कोर्स (Course) या प्रोसेस (Process) कहते है। स्कूल्स औफ थाट्स (Schools of thoughts) भी उसीको कहा जाता है। निष्ठाका शब्दार्थ है किसी बातमे अपनेको लगा देना, अर्पित कर देना, उसीमे जीवन गुजार देना । ये दोनो मार्ग और दोनो विचारधारायें ऐसी है जिनमे एक एकमे जाने कितने सहन, कितने लक्ष महापुरुषोने अपने जीवन लगा दिये है, अपनेको मिटा दिया है। इसका जिक्र आगे चौथे अध्यायमे है । महाभारत तथा अन्यान्य ग्रन्यो एव उपनिषदोमे भी इसका वर्णन बहुत ज्यादा आया है । कृष्ण अपनी प्रात्माको सभी ऋपि-मुनियोकी प्रात्माके रूपमे ही अनुभव करते हुए वोलते है कि मैने ऐसा कहा है। फलत कृष्णका उपदेश उन सबोका ही उपदेश है। कृष्णकी इस मनोवृत्तिपर हम काफी प्रकाश पहले ही डाल चुके है । साख्य और योगका भी अर्थ बता चुके है । न कर्मणामनारम्भाष्का पुरुषोऽश्नुते । न च सन्यसनादेव मिद्धि समधिगच्छति ॥४॥ (लेकिन कोई भी) यादमी कर्मोको शुरू न करके कर्मत्याग या सन्यास प्राप्त कर सकता नहीं। (और खामखा) कर्मोके त्यागसे ही सिदि नहीं मिलती-इप्ट या कल्याणकी-मोक्षकी प्राप्ति नही हो जाती ।४। न हि फश्चित्वानपि जादु तिष्ठत्यकर्मकृत् । फार्यते हवशः फर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥५॥ (यह भी तो है कि) कोई भी क्षणभर भी विना कर्म किये रही नही सकता । क्योकि प्रकृतिके गुणोसे मजबूर होके सभीको कर्म करना ही होता है ।। कर्मेन्द्रियाणि सयम्य य प्रास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥
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