५१२ गीता-हृदय ही। फिर तो निस्सन्देह यही सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ है, उसने यही निष्कर्ष निकाला। मगर इसीके साथ उसने यह भी देखा कि “तस्माद्यु- ध्यस्व" (२।१८), "उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय" (२।३७,) तथा "युद्धाय युज्यस्व" (२।३८) मे साफ ही मुझे युद्ध करनेकी आज्ञा देके इस युद्धात्मक घोर कर्ममे ही लगाया जा रहा है और बार-बार कहा जा रहा है कि सोच फिक्र न कर, चिन्ता मत कर, आदि आदि । वह कृष्णको अपना सबसे बडा हितेच्छु मानता था। इसीलिये वह आगा-पीछामे पड गया कि यह क्या बात है ? एक ओर तो ज्ञान मार्ग सर्वोत्तम बताया जा रहा है। दूसरी ओर मेरे लिये हिंसामय युद्ध ही कर्त्तव्य कहा जा रहा है । वह घबरा गया और इसी पशोपेशमे पडके कुछ भी निश्चय न कर सकनेके कारण कृष्णसे- अर्जुन उवाच । ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन कि कर्मणि घोरे मा नियोजयसि केशव ॥१॥ व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव मे। तदेक वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥२॥ अर्जुनने पूछा-हे जनार्दन, हे केशव, यदि कर्मकी अपेक्षा वुद्धि- ज्ञान-को ही श्रेष्ठ मानते है तो फिर (हिंसात्मक युद्ध जैसे) घोर कर्ममे मुझे क्यो लगाते है ? (असलमें) आपके वीच-बीचमें मिले-जुले वचनोंसे ऐसा मालूम पडता है कि जैसे मुझे घपलेमें डाल रहे हो। इसलिये पक्कापक्की निश्चय करके दोनोमे एकको ही मुझे बताइये, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूँ ।१।२। कि यहाँ कृष्णपर दो इल्जाम लगे मालूम होते है । पहला यह - साफ-साफ नही वोलके कभी जानकी वात और वडाई करते हैं तो कभी
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