५०८ गीता-हृदय अपनी लडाई या अपने ही करते अपनेमें उफान और बेचैनी कैसी ? वहाँ तो भेद रही न गया। फिर वेचैनीका क्या सवाल ? वहाँ तो मालूम पडता है, न कोई आया न गया | जैसी दशा पदार्थोके मिलनेके पूर्व थी वैसी ही मिलनेपर और बादमें भी रह गई । जरा भी फर्क नहीं आया । विहाय कामान्यः सर्वान् पुमाश्चरति निस्पृहः । निर्ममो निरहकार स शान्तिमधिगच्छति ॥१॥ (इसलिये) सभी पदार्थोंको छोडके-उनकी जरा भी पर्वा न करके- जो पुरुष नि स्पृह विचरता है और जिसमें माया-ममता-अहन्ता ममता- जरा भी नही होती, वही शान्ति प्राप्त करता है-उसीको शान्ति मिलती है ।७१॥ अहन्ता और ममता ही तो सारी खुराफातोकी जड है। मै और मेरा यही तो है अहन्ता और ममता । अहम् और मै, मेरा और मम एक ही अर्थमे आते है और यही है जहर जिससे सभी मरते है । यह खयाल ही है कालानाग जिसके डसते ही सभी मर जाते है । योगीमें यही नहीं होता। फिर पदार्थोकी उसे क्या पर्वा ? किसी दण्डी महात्मासे जव एकने, जो बडा मगरूर मालदार था, पूछा कि महाराज, सन्यासी किसे कहते है ? तो उनने चट उत्तर दिया कि तुमसे लेके ब्रह्मातकको जो तृणके बराबर भी न समझे वही सन्यासी है । यही लापर्वाही और बेफिक्री मस्तीकी असली निशानी है। इसीलिये ऐसा आदमी मस्त होके सर्वत्र विचरता है और शान्ति उसके चरण चूमती रहती है। उसका तो मन जही जाता है वही समाधि है-“यत्रयत्रमनोयाति तत्रतत्रसमाधय" । निर्ममके बारेमे पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥७२॥ हे पार्थ, यही ब्राह्मी स्थिति (कही जाती) है। इसे हासिल कर लेने-
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