३२ गीता-हृदय नवे अध्यायका जो 'पन पुष्प' श्लोक पहले बताया मोके बाद के २७ और २८ दो श्लोकोमे जो कुछ भी कहा गया है उसमे नी दिपाने और वेवमियाँ दूर हो जाती है। हाँ, अपने मनको दिन रहती है जम्न। मगर इसका तो कोई बाहरी उपाय है नहीं। यह गद हटानेकी चीज है। मनकी शैतानियत तो दूसग कोई दूर कर सकना नही। हां, उन श्लोकोमे पहले यन, दान और तपके नामने तीन कामांको गिनाने कहा है कि इन्हें करके भगवदर्पण, मदर्पण, मुझे अर्पण परो। मगर फिर इनमे भी वही दिनयत और गवाये समझो ग्रामिग्म कर दिया है कि इन्हे तो नमूनेके तौरपर गिना दिया है। अगलमे जो कुछ भी कन्ते हो, 'यत्करोपि', उसे ही भगवानको अपण करो। इसका सीधा मतलब यही है कि जो भी काम करते हो मभी कुछ भगवदर्पण बुद्धिने, यह समझके कि यह भगवानकी पूजा ही म्पान्तरमे हो रही है, करो। चोवीन घटेम जो कुछ भी किया जाय-और इसमे गोना, मलमूरा त्याग आदि भी पाई जाता है-मभीके मुतल्लिक एक ही भावना होनी नाहिये, एक ही खयाल होना उचित है कि यह तो और कुछ नहीं है, केवल भग- वानकी पूजा है। इसी सयाल का अभ्यास होने से ही काम चल जाता है । फिर तो लोक-परलोक के लिये दूसरी चिन्ता-फिक करनेकी जरूरत ही नहीं होती । कामका काम हुअा और भगवान की पूजा भी हो गई । “आमके आम रहे और गुठलीका दाम भी मिल गया "एक पन्थ दुइ काज" कहते है। गीतामें यह बात किसी न किसी रूपमे बार-बार पाती गई है और अन्तमे १८वे अध्यायकी समाप्तिके पहले भी ४५ और ४६ इलोकोमें यही बात कही गई है। वहां तो "स्वकर्मणातमभ्ययं" -"अपने-अपने कर्मोसे ही उस भगवानकी पूजा अच्छी तरह करके"-ऐमा माफ ही कह दिया है। यज्ञ, दान आदि का वहां नाम भी नही लेके केवल 1" इसे ही
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