दूसरा अध्याय ५०७ यद्वत्। तरहका उपसहार अगले श्लोकमे करते है। बचे-बचाये आखिरी प्रश्न "कैसे चलता है"का उत्तर तो उसके बादवाले श्लोकमे दिया गया है। श्रापूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्ने स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥७०॥ सभी तरफसे निरन्तर पानीके आते रहनेपर भी जिसका पानी जरा भी बढता नजर नहीं आता और ज्योका त्यो बना रहता है-जिसमे जरा भी उफान नही आता, ऐसे समुद्रमे घुसके उसीका रूप बन जानेवाले पानीकी ही तरह सभी भौतिक पदार्थ जिस (पुरुष) के पास आते है (और उसकी गभीरतामे जरा भी फर्क डाल नही सकते), वही शान्ति प्राप्त करता है, न कि पदार्थोंके लिये हाय-हाय मचानेवाला ७०। इस श्लोकमे जो खूवी है वह यही कि इससे योगी और आत्मज्ञानीके बाहरी लक्षणका पता लगनेके साथ ही इसमे कही गई बात बहुत मार्केकी है । यहाँ “समुद्रमाप” और “य प्रविशन्ति"मे द्वितीयान्त शब्द आये है 'समुद्र' तथा 'य'। हालाँकि-समुद्रमे पानी जाता है, इस मानीमे 'समुद्रे' जैसी सप्तमी विभक्ति चाहिये और 'य'की जगह भी 'यस्मिन्' चाहिये । किन्तु वैसा कहनेपर कुछ ऐसा मालूम होने लगता है कि चाहे जो हो, फिर भी पानी समुद्रसे निराली ही चीज है । क्योकि वह पानीके पात्रकी तरह आधार बन जाता है । पात्रमे रहनेवाले पानीकी ही तरह वहाँ जानेवाला भी उससे जुदा आधेय बनता है। मगर द्वितीया विभक्तिमे यह बात नही रह जाती है । उससे तो साफ ही मालूम होता है कि पानी समुद्रका ही रूप वन गया-उसीमे विलीन होके तद्रूप बन गया। या यो कहिये कि पानी अपने आपमे ही जा मिला। इसी तरह पदार्थ भी जव योगीके पास जाये तो ऐसा हो जाय कि अपने आपके ही पास आये है। क्योकि आत्मा तो सभीकी है और योगी सभीकी आत्मा बन चुका है, वह "सर्वभूतात्मभूतात्मा" (५७) बन चुका है। फिर अपने आपसे ही
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