५०६ गीता-हृदय घोर अंधियालीकी वात हो। इमीलिये जिन चीजोमे दूसरोको मजा आता है उनका उन्हें पता ही नहीं चलता। अंपियालीकी चीजोका पता किमे चले, सिवाय उत्लूके ? मगर जिस तरफ मस्तराम लगे है, जिवर वे जगते है, जिधर उन्हे प्रसर प्रकाश पीर उजियाली है, जहाँ उनके लिये विना लैम्प, चांद, सूरज और आगके ही खुदवखुद अखड प्रकाश है- 'यात्मवान्य ज्योतिर्भवति", "अनाय पुरप स्वयज्योतिर्भवति" (वृहदा० ४।३।६-८), वहीं वाकी लोगोंके लिये काली अंधियाली है, भादोकी रात है । फलत वे लोग कुछ भी जान पाते नही । आखिर दोनो मजा मारेगे कमे ? एकको तो छोडना ही होगा। यही बात आगेका श्लोक कहता है । “पश्यतो मुने "का अर्थ ही यह है कि उसकी भीतरी प्रांखें बरावर सुली है- या निशा सर्वभूताना तस्या जागति संयमी। यस्या जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने. ॥६॥ सब लोगोके लिये जो रात है उसमे सयमी-योगी-जागता है (पौर) जिममे लोग जगते है निरन्तर भीतरी आँखे खुली रखनेवाले उस मुनि-मननशील के लिये वही रात है ।६९। इस तरह पदार्थोके भोगकी बात जो कही गई है उसका निचोड कह देना जरूरी है। क्योकि सभी तो इतने गहरे पानीमें उतर सकते नहीं कि इन लम्बी-चौडी वातोको समझ सके। साथ ही, ऐसे आदमीकी क्या हालत रहती है जो औरोको भी साफ-साफ मालूम हो जाती है, यह वता देना भी जरूरी है। ताकि योगी भी अपने आपको लोकमतकी तराजूपर बरावर तौलता रहे। दूसरे लोग भी उसकी पहचान करके उससे फायदा उठा सके, कुछ सीख सके । इसीलिये नर्तकी या फांसीवाले- की अपेक्षा एक तीसरा दृष्टान्त, जो सव दृष्टियोसे अनुकूल हो, पेश करके 'कैसे वैठता है' प्रश्नके उत्तरका और इस प्रसगकी सारी बातोका एक
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