दूसरा अध्याय ५०५ लिये उन्हें दूसरा काम, दूसरा यत्न तो करना होगा नही । यह काम एक ही साथ होगा । असलमे भोगका अर्थ ही है मजा लेना, सुख-दुखका अनुभव करना । भोग इसीको कहते ही है-"सुखदु खान्यतरसाक्षात्कारो भोग"। फिर यह क्या बात कि मजा न आये, हम चसकें नही, या मनमे ये बातें न आये? इसका उत्तर भी सुन्दर है। जिसे फाँसीकी सजा हो, फाँसी दी जानेवाली ही हो उसे आप चाहे सुन्दरसे भी सुन्दर पदार्थ खिलाइये और कोमलसे भी कोमल शय्यापर सुलाइये। मगर जरा पूछिये तो सही कि उसे कुछ भी मजा आता है ? उसे तो पता ही नही चलता कि वह क्या खा-पी रहा है और कहाँ सो रहा है। उसका मन मौतमे जाके अटक जो गया है। उसके सामने तो मौत बराबर खडी है। जरा भी हटती नही । फिर मजा आये तो कैसे ? यहाँ तो मौत आई हुई है और हटती ही नही, दूसरोको जगह देती ही नहीं। इसी तरह नृत्यकलामे कुशल नटीको खडा कीजिये और उसकी कलाकी जाँच कीजिये तो देखिये क्या होता है । उसके सरपर पानीसे भरा एक पात्र रखके बिना उसे हाथसे पकडे नाचनेको कहिये । वह बराबर बाजे-गाजेके ताल-सुरमे ही ठीक-ठीक नाचेगी, जरा भी फर्क न पडेगा। मगर उसका मन निरन्तर उस जलपूर्ण पात्रमे ही लगा होगा। नही तो जरा भी चूकते ही वह नीचे जा गिरेगा और नटी नृत्यकलाकी परीक्षामे अनुत्तीर्ण हो जायगी। ठीक यही हालत योगी, समदर्शी और आत्मतत्त्वज्ञ मस्तरामकी भी समझिये । इनके मनीराम तो उधर ही टॅगे रहते है, फंसे और लटके रहते है । दूसरे कामकी इन्हे फुर्सत हई नही। फिर चस्का लगे तो कैसे? मजा आये तो कैसे ? नटीके ताल-सुरवाले नृत्यकी तरह मस्तराम भी खाना-पीना सब कुछ करते ही है। मगर मजा नही रहता, रस नही मिलता | उनके लिये सारी दुनिया जैसे अंधेरेकी चीज हो, भादोकी
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