५०४ गीता-हृदय अर्थ ही है रागद्वेष-पूर्वक पदार्थोंका भोगा जाना। फिर तो सब ज्ञान- ध्यान खत्म । बुद्धिका भी होश फाख्ता ही समझिये। असल चीज यह मनीराम ही है । यही जिधर चलते है उधर ही सब कुछ होता है । जब ये इन्द्रियोकी ओर चले तो बुद्धिपर भी वारट जारी हुआ और जवर्दस्ती बाँध-छानके उधर ही घसीटी गई । और अगर ये हजरत बुद्धिकी तरफ आ गये तो इन्द्रियाँ बेकारसी हो गईं। वे हाथ जोडे बुद्धिकी ही मातहती करती और हुक्म बजाती है। इन्हे तो खीचनेकी भी जरूरत नहीं होती। खुद हाथ जोडे हाजिर रहती है और बुद्धिके काममें मदद करती है। वह तो अपना काम निर्वाध करती ही रहती है। इसीलिये विषयोसे इन्द्रियोको बखूबी रोक रखनेका यह मतलव हर्गिज नहीं है कि खाना-पीना, देखना-सुनना, पढना-लिखना सब कुछ बन्द हो जाय । तब तो आफत ही आ जायगी और कोई भी काम होई न सकेगा। आखिर भावनाके लिये भी तो शरीरोपयोगी काम करना जरूरी होता ही है। मर जानेसे तो कुछ होगा नही । जवर्दस्ती करनेमे तो मरनेमे भी फजीती होगी। श्लोकमें 'निगृहीत' शब्द है । निग्रह कहते है दडको। जिस तरह दडित आदमी, बन्दी या कैदी काम-धाम तो सब कुछ करता है, मगर उसकी आजादी जाती रहती है, वह तकुवेकी तरह सीधा बनके शैतानियत छोड देता है। ठीक यही हालत इन्द्रियोकी होती है। ये भी कैदीकी तरह हुक्म बजाती है, सब कुछ करती है, और तकुवा बन जाती है। परन्तु यह बात असभव जैसी मालूम होती है और साधारण आदमीके दिमागमे घुसती ही नही। विषयोको जरूरत भर काममें इन्ही इन्द्रियोंके द्वारा लायेगे भी और हमें कुछ पता भी न चलेगा कि इनमें क्या मजा है, यह कुछ अजीब बात है। जिन्ही इन्द्रियोसे विषयोको भोगेगे, उनका अनुभव करेंगे वही तो उसीके साथ उनका मजा भी बताई देंगी। इसके
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