दूसरा अध्याय ५०३ तदस्य क्यो न जोडा जाय ? इसीलिये हमने दूसरे अयुक्त शब्दका अबुद्ध ही अर्थ किया है और कहा है कि विना बुद्धिके भावना होती ही नही । असलमे, जैसा कि पहले ही कह चुके है, योगमे भी बुद्धि ही वास्तविक चीज है। इसीलिये "बुद्धियोगाद्धनजय" (२।४६) मे बुद्धिको ही योग कहा भी है। इसीलिये जान पडता है, यहाँ भी ‘अबुद्धस्य'की जगह 'अयुक्तस्य' कह दिया है। ताकि वुद्धिपर ही जोर दिया जा सके। इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते । हरति प्रज्ञां वायु वमिवांभसि ॥६७॥ क्योकि (विषयोमे) रमनेवाली इन्द्रियोके पीछे जब मन लग जाता-- चला जाता है तो (अपने साथ ही) बुद्धिको भी (विवश करके) वैसे ही खीच लेता है जैसे मझधारमे पडी नावको वायु (विवश करके इधर- उधर खीचता और अन्तमे डुबो देता है) ।६७। तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६॥ इसीलिये हे महाबाहो, जिसकी सभी इन्द्रियाँ (अपने अपने सभी) विषयोसे पूरी तरह खीच ली गई है उसीकी बुद्धि स्थिर होती है ।६८। इन दो श्लोकोमे दो बाते है, जिनपर दो शब्द कह देना है। जिस तरह हवाके झकोरेमे पडी नाव विवश होके इधर-उधर भटकती और अन्तमे डूवती या छिन्न-भिन्न होती है, फिर भी नाववाले कुछ कर नही सकते । ठीक उसी तरह इन्द्रियोका साथी मन हो जानेपर हालत होती है। बुद्धिरूपी नावके लिये इन्द्रियोका वेग हवाके झकोरेका काम करता है। उसकी सफलताके लिये जिस मझधारकी जरूरत है उसका काम वही मन पूरा कर देता है । मझधार न होनेपर हवाके तेजसे भी तेज झोके नावका खाक नही विगाड सकते। इन्द्रियाँ भी मनुष्य का कुछ कर नही सकती है यदि उनका साथी मन न मिल जाय । मनके मिलनेका
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४९५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।