पूजाके भेद दिखानेके लिये नही, किन्तु भीतरी श्रद्धाके साथ, जो कुछ पत्र, पुष्प आदि भगवानके नामपर अर्पण किया जाता है उसे भी नवे अध्यायके “पत्र पुष्प" (२६) श्लोकमे पूजा कहा है । मगर वहाँ 'भक्त्या' और 'प्रयतात्मन' के साथ ही जो 'भक्त्युपहृत' कहा है उससे एकदम स्पष्ट हो जाता है कि सरल स्वभाव और निष्कपट मनसे श्रद्धा और प्रेमके साथ जो कुछ किया जाता है उसे ही भगवान स्वीकार करते है और वही उनकी पूजा है । श्रद्धा भक्तिकी जरा भी कमी हुई और यह बात चौपट हुई। तब तो यह कोरा रोजगार हो जाता है। दो बार 'भक्ति' शब्द एक ही श्लोकमे कहनेका मतलब ही यही है कि छलछलाते प्रेम और सच्ची श्रद्धाके साथ ही ऐसा करना पूजा मानी जा सकती है। नरसी मेहता और नामदेव आदि भक्तोके बारेमे ऐसा ही कहा जाता है। शवरी तथा विदुरकी ऐसी ही बात सर्वजन विदित है। यह तो हुई एक पूजा। लेकिन यह है बहुत ही सकुचित । इसमे कितने ही बन्धन जो लगे हुए है । पूजाके लिये पत्र, पुष्प आदि लाना और उसकी खासतौरसे तैयारी करना इस बातके लिये जरूरी हो जाता है । इसलिये यह पूजा निराबाध नही चल सकती। इसका दिनरात चलना भी असभव है। आखिर घर-गिरस्ती सँभालना तो पडता ही है। अपने शरीर-सम्बन्धी मलमूत्र त्याग आदिकी क्रियाये तथा खान-पान वगैरह भी तो जरूरी है । समय-समयपर लोगोसे बातचीत और सोना जागना भी आवश्यक है । यदि कोई नौकरी-चाकरी या मजदूरी करते है तो उस समय भी यह काम नही हो सकता है। यदि हल चलाते, खेत खोदते, विद्यार्थीकी दशामे पाठका अभ्यास करते और सिपाही बनके पहरा देते है, तो भी यह पूजा हो सकती नहीं। रीमार हो जानेपर भी यह चीज असभव है। इस प्रकार हजार वाधाये मौजूद है जिनसे यह पूजा खडित हो जाती है । इसी- लिये गीताने बहुत ही आसान और सर्वथा सर्वदा सुलभ मार्ग बताया है । .
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