दूसरा अध्याय ४६५ आत्मानन्दका उक्त रीतिसे पूर्ण अनुभव किया मगर पेटभरोका मन तो एकाग्र था नही । क्योकि हलवा-पूडीकी रट थी नही । उनका पेट जो भरा था। इसीलिये वह चीजे मिलनेपर भी उनमे कोई फर्क न हुआ। इसीलिये उनका मन आत्मानन्दका अनुभव कर न सका। वह तो बन्दरकी तरह पहले भी दौडता रहा और खानेके समय एव उसके बाद भी। फिर आत्मानुभव हो तो कैसे ? वह आनन्द मिले तो कैसे ? देखा जाता है कि सूखी हड्डीको कुत्ता चवाता है। उसमें कुछ रस तो होता नही। केवल हड्डीकी महकसे कुत्तेको खयाल होता है कि जिस तरह ताजी और रसीली हड्डीमे खूनका रस मिलता है उसी तरह इसमे भी मिलेगा। इसीलिये खूब जोरसेउसे चबाता है। जब कुछ नहीं मिलता तो और भी जोर लगाता है। नतीजा यह होता है कि हड्डीकी नोकोसे उसके जबडे छिल जाते है और उनका खून हड्डीमे टपक पडता है। कुत्ता उसीको चाटके खुश होता है। फिर तो पहलेसे भी ज्यादा जोर लगाता है। फलत और भी जख्म होते है जो ज्यादा खून टपकाते है । यही बात देरतक चलती है जबतक वह थकके छोड नहीं देता। कुत्ता अपने ही खूनको मिथ्या ही हड्डीका समझके खुश होता है। क्योकि अपने खूनका स्वाद उसे उस हड्डीके ही वहाने मिल पाता है। इसीसे उसे भ्रम होता है कि हड्डीमे ही खून है । ठीक इसी तरह हरेक आदमी हमेशा मौका पडनेपर अपने ही आत्मानन्दका अनुभव करता है। मगर स्वतत्र रूपसे ध्यान और समाधिके द्वारा वह आनन्द लूटनेका शऊर तो उसे होता नहीं। वह तो विषयोंके बहाने ही उसे कभी-कभी लूटता है, उसका अनुभव करता है। इसीलिये उसे भ्रम हो जाता है कि विषयो-भौतिक पदार्थों---मे ही सुख है। उसे अनभव भी उस आत्मानन्दके एक तुच्छ कणका ही हो पाता है । क्योकि जरासी देरके बाद ही उसका मन फिर चंचल जो हो जाता है। वह उसमे डूब तो सकता नही। इसीलिये वृहदारण्यकके
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