४६४ गीता-हृदय करण वह बाहर जो टॅगा है। भीतर अा जो नहीं सकता। मगर ज्योही वह चीज मिली कि चट भीतर लौटा और उस यात्मानन्दका अनुभव करके मस्त हो जाता है। इस तरह उसे जिस आनन्दका अनुभव होता है वह तो आत्मानन्द ही है। फिर भी अभिलषित पदार्थके मिलनेपर ही उसका अनुभव होनेके कारण ऐसा भ्रम हो जाता है, ऐसा माना जाने लगता है कि उस पदार्थमें ही आनन्द है । उस पदार्थके ही चलते मन---अन्त - की एकाग्रता हुई है जरूर । इसीलिये आत्मानन्दका अनुभव भी हुआ है। इसीलिये उस विषयको आनन्दके अनुभवका सहकारी कारण भले ही माना जाय । मगर उसमें आनन्द तो हर्गिज नहीं है। ऐसा मानना तो सरासर भ्रम है । आनन्द तो केवल भूमामे है--महान्से भी महान् पदार्थ रूपी अात्मामे ही है। यही कारण है कि एक ही चीजसे एक आदमीको आनन्द मिलता है और दूसरेको नही। यदि आनन्द उस वस्तुका स्वभाव होता, उस वस्तुमे ही रहता तो अग्निकी गर्मीकी तरह सबोको समान रूपसे ही उसका अनुभव होता । परन्तु ऐसा होता नहीं । खूब भूखे आदमीको भरपेट सत्तू या सृखी रोटी खिलाइये तो वह आनन्द-विह्वल हो उठता है । लेकिन अमीरको तो वही चीजे देखके भी कप्ट होता है, खानेकी तो वात ही जाने दीजिये । यदि भौतिक पदार्थमे ही आनन्द होता तो ऐसा कदापि न होता । इसी तरह वही हलवा-पूडी भूखेको खिलाइये और पेटभरोको भी । भूखे तो खाके आनन्दसे लोटपोट हो जायेंगे। मगर पेटभरे लोग आनन्द मनाने या खुश होनेके बदले उसमे हजार ऐब ही निकालेगे कि पूडी जरा नर्म सिकी, खर न थी, घी अच्छा न था, सूजी खराव थी, कुछ अच्छी गन्य आती न थी, मालूम होता है, चीनी खाँटी न थी, घी शुद्ध न था, आदि आदि । क्यो ? इसीलिये न, कि भूखेका मन और अन्त करण उस अन्नकी रट लगाये एकाग्र था, निश्चल था, फलत उसे पाते ही उसने
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