४६२ गीता-हृदय सारी परिस्थिति ही उलट जाती है। कहते है कि किसी ऊँटनीका बच्चा उसके साथ चलते चलते जव थक गया तो मांसे गिडगिडाके वोला कि माँ, जरा ठहर जा। बहुत थक गया हूँ। थोडी दम तो मार लूँ। इसपर ऊंटनीने उत्तर दिया कि वेटे, मै भी क्या कम थकी हूँ? मै भी तो दम मारना चाहती हूँ। मगर मेरी नकेल दूसरेके हाथ जो है और वह दाढीजार रुकना नहीं चाहता। इसलिये बेबसी है। बस, ठीक यही हालत मन और इन्द्रियोकी है। जब ये मनसे पूछती है कि क्यो भई, हुक्म दो तो जरा मजा लें, तो मनीराम चट कह बैठते है कि वोलो मत वहनो, वडी वेवसी है, सारा मजा किरकिरा है। वह और भी विगड जायगा। इस तरह पहले श्लोकके स्पष्टीकरणके बाद इसके तथा दूसरेके 'प्रसाद' और सव दु खोकी हानिकी वात रह जाती है। दुनिया का नियम यही है कि कोई भी अच्छेसे अच्छा और बडेसे वडा काम करनेके वाद यदि मनस्तुष्टि या चित्तको प्रसन्नता न हो तो वह काम बेकार माना जाता है और सारा परिश्रम व्यर्थ ही समझा जाता है। विपरीत इसके अगर उसके बाद प्रसन्नता हो गई, तवीअत खुश हो गई तो सब किया दिया सफल माना जाता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि असली चीज भला-बरा काम नहीं है, किन्तु उसके अन्तमे होनेवाली मनस्तुप्टि ही, जिसे यहाँ प्रसाद कहा है और "प्रसन्नचेतस "मे प्रसन्नता भी कहा है। दोनोवा अर्थ एक ही है। वात यो है कि वेदान्त सिद्धान्तके अनुसार हृदयमे या अन्त वरण आत्माका लहलहाता प्रतिविम्ब मानते है। जैसे साफ-सुथरे दर्पण मुन्वका प्रतिविम्ब पडता है और उसे देखके हम खुग या रज होते है जूता मुख प्रतीत हो । ठीक उसी तरह सत्त्वप्रधान अन्त करणका दर्पण भी चमकदार है। उसीमे आत्माका प्रतिविम्ब मानते है । प्रात्माको प्रानन्द
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