दूसरा अध्याय ४८६ करके राशि बनाना । मगर जव जानी-सुनी बाते याद ही नही, उनकी स्मृति ही नही, तो विवेक कैसे होगा ? तब अक्ल और बुद्धि कैसे होगी-- समझ क्योकर होगी? इस तरह भौतिक पदार्थोका ही विवेक जब नही हो पाता, तो फिर आत्माका विवेक और उसका तत्त्वज्ञान कैसे होगा ? वह तो गहन विषय है । इसलिये उसके सम्बन्धकी बातोका जाना सुना जाना तो और भी लापता हो जायगा, उड जायगा, खत्म हो जायगा। और जब बुद्धि ही नही तो मनुष्य को चौपट ही समझिये । यही आठवी और अन्तिम बात है। अव बाकी रही क्या गया, जव चौपट ही हो गये ? पत्थर, वृक्ष और पशु-पक्षियोंसे मनुष्यमे यही तो फर्क है कि यह बुद्धि रखता है, समझदार है--rational being-है और भले-बुरेका विचार करता है, कर सकता है। मगर जब इसमे यही बात न रह गई तो मनुष्य क्या खाक रहा ? तब तो चौपट होई गया । अव सवाल यह होता है कि तो आखिर किया क्या जाय ? अगर किसी चीजका खयाल न करे तो क्या पत्थर बन जाये ? यो तो खयाल करनेपर पीछे देरसे पत्थर बननेकी नौबत आती है, जैसा अभी कहा है। बल्कि खामखा पत्थर बन जानेकी भी नौबत नही आती है। हॉ, मनुष्यता जरूर चली जाती है। मगर यदि खयाल करे ही न, तब तो सोलहो आना पत्थर बनी चुके । और अगर ऐसा नहीं करते तो शरीर-रक्षा एव जीवन-यात्रा करते हुए मनुष्यताकी भी रक्षा करनेका कोई बीचका रास्ता नजर आता नही। आखिर विवेकीके लिये भी तो शरीर, इन्द्रियादिकी रक्षा जरूरी है। नहीं तो विवेक-विचार वह करेगा क्या खाक ? मगर इसके लिये तो पदार्थोका खयाल जरूरी हो जाता है। आखिर भूख लगनेपर ही तो खायेगा और प्यास लगनेपर पानी पियेगा । मल-मूत्रादि का त्याग भी बिना खयालके होगा नही। उधर खयालमे आसक्तिका
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