३० गीता-हृदय 1 है। 'शम' धातुका सम्कृतमं अयं भो है मभी क्रियानी निवृत्ति । मनी शातिका अर्थ भी यही है कि उसकी मार्ग हलचले मिट गई। मगर शान्ति शव्द तो केवल मनके ही लिये प्राता नही। भगती गान्नि, तूफानकी शान्ति प्रादि भी तो बोलते है । अत उनका अर कियावी निवृत्ति । अग्नि शान्त हो गई, लोग शान्त हो गये या ठप गये, मा शान्त हो गया प्रादि बोलचालमे नो हलगल और विद्याकी ही निवृनिगे मतलब होता है पूजाके भेद गीताकी एक और बात भी बड़े ही माकी है। ग्रामतीसे वहीं समझा जाता है कि कठी माला जपना, चन्दन अक्षत और पत्रपुष्प प्रादि चढाना तथा घटा-घडियाल वगैरह वजाके धूप, दीप, प्रान्ती और भोगगग अर्पण करना यही भगवानकी पूजा है। तीर्थ नत प्रापि करने, भगवान गुणोको वर्णन करनेवाले गन्योका पाठ करने, स्तुति करने और गीन भजन ऊँचे स्वरमे गानेको भी किमी कदर पूजा मान लेते है । प्रांगे बन्द करके ध्यानमें बैठना तो भगवानकी भक्ति जर ही है। प्राय देगा जाता है कि भगवानके प्रेमके नामपर प्रांगामे नकलो प्रानू भरके कभी-कभी भक्त नामधारी लोग रोते भी है । गमलीलाके नामपर नाटक वगैरहका जो प्रपच फैलाया जाता है उसे भी पूजाके भीतर ही मानते हैं। प्राजकल तो रसिक सम्प्रदाय और ससीसम्प्रदायके नामपर नाचने-गानेके अलावे जानें क्या क्या नकले की जाती है। और स्त्री बननेका भी स्वांग रना जाता है। इसे भी भगवद्भक्ति ही मानदेकी बीमारी तेजीके साथ फैल रही है। मगर गीताने एक निराला ही रास्ता निकाला है और इस तरह ऐसा करनेवालोका सौदा ही फीका कर दिया है । बेशक, दुनियाको
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