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दूसरा अध्याय ४८७ पाँचवी श्रेणीमे मोह या समोह आता है जो क्रोधसे पैदा होता है । मोह तो एक तरहका पर्दा है जो दिमागपर, विवेकशक्तिपर पड जाता है । जब वही पर्दा खूब जबर्दस्त और गाढा हो तो उसे समोह कहते है । हमारी अॉखोके सामने हजारो चीजे पडी हो और बीचमे पर्दा न हो तो 'हम सबको ठीक-ठीक देखते, जिन्हे चाहते उन्हे चुन लेते, उनके बारेमे कुछ दूसरा खयाल करते और सोचते-विचारते है । मगर अगर बीचमे कोई पर्दा आ जाये तो यह सारी बात रुक जाती है। यही हालत दिमागकी भी है । युगयुगातरकी देखी, सुनी और जानी हुई बाते सस्कारके रूपमे उसमें पड़ी रहती है। उनका एक तरहका सूक्ष्म चित्र पड़ा रहता है । समय-समयपर दिमाग उन्हे देखता, विचारता, चुनता और उनसे काम लेता रहता है। उन चीजो और उसके बीच कोई पर्दा नहीं होता। हाँ, नीद, नशा, बीमारी आदिके करते मोटा या महीन पर्दा कभी-कभी आ जाया करता है और ऐसा हो जाता है कि वे ओझल हो गईं। यही बात क्रोधके समय भी होती है। कहते है कि क्रोधमे आदमी अन्धा हो जाता है-उसे सूझता ही नही। इसका यही मतलब है। क्रोधका पर्दा बडा खतरनाक होता है। वह बुरी तरह भटकाता और गुमराह करता है जिससे महान अनर्थ हो जाता है। यह बात नीद वगैरहमे नही होती है। क्रोधमे तो इन्सान क्यासे क्या कर बैठता है । इसीलिये उसे समोह कहा है। इसीलिये गीताके तीसरे अध्यायके अन्तके (३६-४३) आठ श्लोकोमे इसी क्रोधको सभी पापोका मूल कारण, महापाप, आवरण, कुभकर्ण जैसा पेटवाला, असली शत्रु, आग और कभी पूरा न होनेवाला बताया है। उससे सुन्दर चित्रण हो सकता है नही। क्रोध होते ही दिमागमे भादोकी घोर अँधेरी छा जाती है। "त्रिविध नरकस्येद" (१६।२१-२२) आदि दो श्लोकोमे काम, क्रोध और लोभको नरकके द्वार तथा आत्माके नाशक कह दिया है।