४८६ गीता-हृदय भी होता है कि मिली हुई चीज किसी वजहसे दूर हो जाती है, हट जाती है और क्रोध भडक उठता है। तात्पर्य यह है कि बलवती इच्छाके वाद इच्छित पदार्थकी जुदाई, उसका पार्थक्य या अलग होना ही इच्छाको क्रोधमे परिणत कर देता है। जैसी इच्छा होगी वैसा ही क्रोध भी होगा। यहाँ एक बात याद रखनेकी है । बहुत लोग गीताके “कामात्कोवो- ऽभिजायते'का सीधा अर्थ "कामसे क्रोध होता है", करनेके बजाय बीचमें अपनी पोरसे पुछल्ला लगा देते है कि काम-इच्छा--की पूर्तिमे वाघा पडनेसे क्रोध होता है । वे यह भी समझते है कि उनने अर्थका स्पप्टीकरण कर दिया। मगर ऐसा करनेमे वह भूल जाते है कि गीताका असली अभिप्राय ही चौपट हो जाता है । गीताके कामसे क्रोधको उत्पत्ति सीधे ही कहनेका मतलव यही है कि क्रोधकी असल बुनियाद और अनर्थका म्ल कामना ही है। इसलिये उसीको दूर करना होगा। उन लोगोंके अर्थमें यह बात-कामनाको ही अनर्थ वतानेकी बात नही रह जाती है। क्योकि ज्योही उनने वाधाका नाम लिया कि सवने समझ लिया कि असली वला कामना नही है । क्योकि कामना होनेपर भी तो खामखा क्रोध होता ही नही । वह होता तो है तब जब कामनाकी पूत्तिमें वाचा आ जाये । और अगर वाधा न आये तो? तब क्रोध क्यो होगा ? इस तरह जो महत्त्व कामनाको मिलना चाहिये वही मिल जाता है वाधाको । फलत कामनासे ध्यान हट जाता है-जैसा चाहिये वैसा खयाल कामनाके मुतल्लिक रहता नही । पीछे चाहे हजार कहें कि बाधा तो होती ही है, ऐसा तो सभव नहीं कि सदा हर हालतमे कामनाये पूरी हो, आदि आदि । मगर वह वात रह जाती नही-वह मजा और स्वारस्य रह जाता नहीं। और जव वाचायें अवश्यमेव अाती ही है, तब उनके जिक्रकी जरूरत ही क्या है ? गीताके तीसरे अध्यायके अन्तमें "काम एप क्रोध एप"में तो साफ ही काम और क्रोधको एक ही कहा भी है।
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